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..... सम्यक आचार ...
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अन्तरात्मा के कार्य
___ धर्म ध्यान की साधना मुद्ध धर्म च प्रोक्तं च, चेतना लक्षनो सदा । मुद्ध द्रव्यार्थिक नयेन, धर्म कर्म विमुक्तयं ॥१६८॥ जो वस्तु जग में 'धर्म' इस शुभ नाम से विख्यात है । वह आत्मा के ज्ञान, गुण, चैतन्य से ही व्याप्त है । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा, धर्म का यह रूप है ।
'शुद्धात्मा ही धर्म है, जो कर्मशून्य, अरूप है ॥ जो चैतन्य आदिक लक्षणों से मंडित हो और जो सर्व प्रकार के कर्मों से रहित हो, शुद्ध द्रव्य दृष्टि से या निश्चयनय से संसार में वही एक शुद्ध धर्म है।
धर्म च आत्म धर्म च, रत्नत्रय मयं सदा । चेतना लक्षनो जेन, ते धर्म कर्म विमुक्तयं ॥१६९॥ यदि कोई जग में धर्म है, तो एक आतम धर्म है । सप्राप्ति में जिसके न आवश्यक, कोई भी कर्म है ॥ इस आत्मिक सद्धर्म में रे! ज्ञान-सिंधु अथाह है ।
यह आत्मिक-सद्धर्म ही, चिर सुख-सदन की राह है ॥ यदि संसार में कोई शुद्ध और वास्तविक धर्म है तो वह वस 'आतम धर्म' ही है, जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र इन तीन रत्नों और चेतना या स्वानुभव रूप गुणों से संयुक्त है। यह शुद्ध धर्म सर्व कर्मों की व्याधि से या सर्व प्रकार के बाह्याडम्बरों से हीन रहता है।