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... सम्यक् आचार .....
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माया आनंद संजुक्तं, अनृतं अचेत भावन । मन वचन काय कर्तव्य, दुर्बुद्धि विस्वास दारुनं ॥१६४॥ जिस जीव का संसार केवल, एक मायाचार है। मिलता उसे मिथ्यात्व में ही, हर्षे अपरम्पार है॥ मन, वचन, क्रम के योग्य, इस संसार में जो कर्म है ।
उनसे विमुख हो वह कुमति, करता सदैव अधर्म है। जो प्राणी मायात्व में ही जीवन का आनन्द मानता है, वह अनृत और अचेत भावनाओं का निश्चल पुजारी बन जाता है। मन वचन और कर्म से किये जाने योग्य कार्यों से विमुख होकर, वह मूढ़ प्राणी कुबुद्धियों में विश्वास करता हुआ सदा दारुण अधर्मपूर्ण कर्म किया करता है।
माया अचेत पुन्यार्थ, पाप कर्म च वृद्धते । सुद्ध दिस्टि न पस्यंते, मिथ्या माया नरयं पतं ॥१६५॥ जो पुण्य कर्मों में भी करता, मूढ मायाचार है । वह नर बढ़ाता बस समझ लो, पाप का संसार है । जो शुद्ध आत्मिक तत्व का, करता नहीं है चिन्तवन । वह अधम, मायावी नियम से, नक में करता गमन ।
जो अचेत पुरुष पुण्य कार्यों में भी मायाचारी का प्रदर्शन करता है, वह अपने संचित कमों में पाप का एक हिस्सा और बढ़ा लेता है। सारभून शुद्धात्म तत्व क्या है, इस तथ्य को वह मंदमति जीवन भर भी न जान पाता है और अपनी मायाचारिता के परिणामस्वरूप नर्क में अपना पतन कर लेता है।