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सम्यक आचार
मानस्य चिंतनं दुर्बुद्धि, बुद्धि हीनो न मंसयः । अनृतं ऋतं जानते, दुर्गति पस्यति ते नरा ॥१५८॥ वे जीव ही, अविवेकियों के जो अरे ! शिरमौर हैं । इस मान रूपी दुष्ट को, देते हृदय में ठौर हैं । वे अन्त में भी सत्य के, करते निरन्तर दश हैं । मिथ्यात्व बंधन बांध, करते नर्क में अपकर्ष हैं ।
इस मान को अपने हृदय में वही पुरुष स्थान देते हैं, जो बुद्धि से विलकुल रिक्त होते हैं अथात जिनमें लेशमात्र भी विवेक बुद्धि नहीं होती। व पुरुप मिथ्या वस्तु में ही सत्य के दर्शन किया करते हैं और इसी से अनेकों दुर्गतियों में व पुरुप मर्कट के समान घुमते रहते हैं।
मान बंधं च रागं च, अर्थ विचिंतन नंतयं । हिंमानंदी च दोषं च, अनृतं उत्माहं कृतं ॥१५९॥
जिनके अशुभ अन्तस्तलों में, वास करता मान है । पर द्रव्य हरने में ही रहता, नित्य उनका ध्यान है॥ वे जीव हिंसा, चौर्य से ले, संग में अंतर सने ।
गिरकर कुगति के कूप में, सहते हैं दुःख भयावने ॥ जिनकी प्रात्मा मान के बंधनों से बंध जाती है. वे पर द्रव्य को किस तरह हरण किया जाय, नदा इमी चितवन में पड़े रहते हैं। इस दुष्कर्म की चिन्ता उन्हें हिंसानदी और चौर्यानन्दी रौद्रध्यानी बना दनी है, जिसके फलम्वरूप उन्हें अनेक दुर्गतियों में जन्म लेने पर विवश होना पड़ता है।