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सम्यक् आचार
विषयं रंजितं जेन, अनृतानंद संजुतं । पुन्य सद्भाव उत्पादते, दोषे आनंदनं कृतं ॥ १४२ ॥
जो नर विषय-भोगादि को ही मानते सुखसार हैं । वे मृषानंदी रौद्र के, होते नियम से द्वार हैं । बस पुण्य संचय में लगाते, वे हमेशा शक्ति हैं । इस माँति भव से ही बढ़ाते, नित्य प्रति आसक्ति हैं ।
जो मनुष्य विषय भोगों में ही आनन्द लेते हैं, वे मृषानंदी रौद्रध्यान के निश्चय से चिन्तवन करने वाले हो जाते हैं। ऐसे मनुष्य इस विचार से कि अगर हम दान पुण्य वगैरह प्रचुर मात्रा में करेंगे तो उस जन्म में भी हमें अगणित भोग प्राप्त होंगे, बहुत से पुण्य के काय कियाह करते हैं और इस तर संसार के बंधनरूप दोषों में ही रंजायमान होते रहते हैं ।
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अष्ट मदों में आसक्ति
एतानि राग संबंध, मद अस्टं रमते सदा । ममत्वं असत्य आनंद, मदष्टं नरयं पतं ॥ १४३ ॥
जो मृद नर, अब्रह्म के सातों व्यसन के कुण्ड हैं । उनमें विचरते नियम से, आठों मदों के झुण्ड हैं । वह जड़ ममत्व असत्य को ही, मानता सुखमूल है । पाकर अधोगति, नर्क की वह छानता नित धूल है ॥
जो मनुष्य निरन्तर व्यसनों के उद्यान में क्रीड़ा किया करता है, वह आठ मदों का शरणस्थल बन ही जाता है— आठ मढ़ आकर उसके हृदय में घर बना ही लेते हैं। मदों के चक्कर में पड़कर वह जगत के पदार्थो में और असत्य वस्तुओं में झूठा श्रानन्द मानता रहता है और एक दिन नर्क का महापात्र बन जाता है ।