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सम्यक् आचार
असत्यं असास्वतं रागं, परपंच रतो मदा । सरीरे राग वृद्धन्ते, ते नरा दुर्गति भाजनं ॥ १४४ ॥
मिथ्या. अशाश्वत राग में, उत्साह से करना रमण | उस राग के ही बाग में, होकर मुक्ति करना भ्रमण ॥ यह राग, सुन उत्पन्न करता, मोह का संसार है । जो नियम से होता . अशुभ गति का भयंकर द्वार है ॥
असत्य और नश्वर पदार्थों में मोह करना; उनमें प्रतिपल उत्तरोत्तर उत्साह के साथ रमण करना शरीर में राग पैदा करने का प्रबल कारण होता है, और शरीर की आसक्ति एक न एक दिन मनुष्य को दुर्गति का पात्र बनाती ही है।
जाति कुल सुरूपं च, अधिकारं न्यान तपं बलं । बलं सिल्प आरूढं, मद अस्टं संसार भाजनं ॥ १४५ ॥
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माता मेरी विदुषी पिता बलवीर, मैं धनवान हूँ । मैं काम की प्रतिमूर्ति हूँ. मैं एक सत्तावान हूँ ॥ मैं तापसी, मैं शूर, मेरा ज्ञान - कुण्ड अथाह है । यह अष्ट- मह दल ही, संसार की कटु राह है ||
अरे
अपनी माता के पक्ष का, अपने पिता के पक्ष का अपने धन का, सुन्दर रूप का, अपने अधि कारों या सत्ता का, तपोबल का, शरीर बल का और शिल्पादि विद्याओं के ज्ञान का मद ये आठ प्रकार के मद, मनुष्य को संसार-सागर में बार बार डुबाने वाले हुआ करते हैं ।