________________
८४ ] .
सम्यक् आचार
मानं राग संबंधं, तप दारुनं नंतं श्रुतं । सुद्धतत्वं न पस्यंति, ममतं दुर्गति भाजनं ॥१५॥ जो कुतप तपता, उसे हो जाता भयंकर मान है । वह समझने लगता है वह तो एक साधु महान है ॥ शुद्धात्म को विस्मृत बना, पर मोह में वह घूमता ।
उस मोह के ही चक्र में फंस, वह कुगतियें चूमता । जो मनुष्य कुतपश्चर्या करता है, उसे अत्यधिक मान हो जाता है और वह समझने लगता है कि हम तो बड़े भारी तपस्वी है। आत्मानुभव में शून्यता होने के कारण उसे अपने स्वरूप का किंचित भी दिग्दर्शन नहीं हो पाता है; संसार के ममत्व में ही वह फंसा रहता है और अंततोगत्वा वह महान दुर्गतियों का पात्र बनता है।
चार कषायों में प्रवृत्ति
कषायं जेन अनंतानं, रागं च अनृतं कृतं । विस्वामं दुर्बुद्धि चिंते. ते नरा दुर्गति भाजनं ॥१५१॥ मिथ्यात्व--संगिनि कषायों का, जिन हृदय में वास है । मिथ्यात्व पद का बन चुका जो नर सदा को दास है। उसके हृदय में नित्य ही, कुज्ञान करता है रमण । वह जीव .अर्घट तुल्य. दुगति में सदा करता भ्रमण ॥
संसार जनित राग के कारण उत्पन्न हुई, अनंतानुबंधी कपायों का जिनके हृदय में वास रहता है, व मनुष्य मिथ्याज्ञान में विश्वास करने लग जाते हैं और उसके परिणामस्वरूप दुगति के अवश्यंभावी पात्र बनते हैं।