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सम्यक आचार
जातिं च राग मयं, अनृतं नृत उच्यते । ममत्वं अस्नेह आनंद, कुल आरूढं रतो सदा ॥१४६॥ जो जीव माता पक्ष का, करता वृथा अभिमान है। वह नर मृपा को सत्य कह, करता अनर्गल गान है॥ जो नर पिता के पक्ष से, वनता अरे कुलवान है। उसका कुममता-कीच में ही, फंसा रहता ध्यान है ।
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जो मनुष्य अपनी जाति का या अपनी माता के पक्ष का अभिमान करता है, वह व्यर्थ एक मिथ्या वस्तु को सत्य कह कह कर पुकारता है। अपने पिता के पक्ष का या अपने कुल का जो पुरुष घमंड करता है, वह सिर्फ अपने कुटुम्बियों के ममत्व और झूठे स्नेह में फंसता है, और कुछ नहीं।
रूप अधिकार दिस्टा, रागं वृद्धति जे नरा । ते अन्यान मयं मूढा, संमारे दुष दारुनं ॥१४७॥ निज रूप या अधिकार को, जो देखकर कहते "अहा ! हम भी हैं कितने भाग्यशाली, सम्पदा पाई महा" ॥ यह राग है! यह राग रूपी, जो पकड़ते ब्याल हैं । वे जीव नित संसार में, दुख भोगते विकराल हैं।
अपने रूप या अधिकार को देखकर, जो पुरुष फूले नहीं समाते और उन्मत्त बनकर व्यर्थ का राग संचय करते हैं, वे अज्ञान से आवृत, महामूर्ख इस दारुण दुःख के घर संसार में अनंत समय तक भटकते रहते हैं और भयावने कष्ट पाते रहते हैं।