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................... सम्यक् आचार
जिनवाणी कुन्यानं त्रि विनिर्मुक्तं, मिथ्या छाया न दिस्टते । सर्वन्यमुष वानी च, बुद्धि प्रकास सरस्वती ॥१२॥ तीनों ही कुज्ञान रहित है, जिसकी निर्मलतम काया । भूल नहीं पड़ती है जिस पर, मिथ्यादर्शन की छाया । श्रीजिनेन्द्र का मुख-सरसीरुह, जिसका उद्गम, तीर्थ महान् ।
गणधरादि से व्यक्त, सदा जो बहती रहती एक समान ।। तीनों ही मिथ्याज्ञान से जो सर्वथा रहित है और जहां पर मिथ्यादर्शन की छाया भी दृष्टिगोचर नहीं होती है; जिसको म्वयं सर्वज्ञ देव ने अपने मुख से प्रस्फुटित की है और जो गणधर आदि विशिष्ट कोटि के प्राचार्यों द्वारा सदा प्रवाहित होती रहती है।
कुन्यानं तिमिरं पूर्न, अंजनं न्याय भेषजं । केवलि दिस्टि सुभावंच; जिन कंठ सरस्वती नमः ॥१३॥ मिथ्याज्ञान-तिमिर को है जो, ज्ञानांजन उपचार महान । जिसके वर्ण, वर्ण में होते. दृश्यमान केवलि भगवान ॥ संशय, विपर्ययादिक-खगदल जिसे देख उड़ जाता है।
ऐसी उस जिनवाणी मां को, यह रज शीश झुकाता है। मिथ्याज्ञान रूपी अंधकार में दिव्य प्रकाश पाने के लिये, जो ज्ञान रूप अंजन महान औषध है, और जिसमें यत्र तत्र केवली भगवान का अनुभव किया हुआ ज्ञान दृष्टिगोचर होता है, उस जिनवाणी माता को मैं अभिवादन करता हूँ।