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सम्यक् आचार
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परमात्मा
आत्मा परमात्मा तुल्यं च, विकल्पं चित्त न क्रीयते । मुद्ध भाव अथिरी भूतं, आत्मा परमात्मनं ॥४८॥ जिसमें विकल्प विभेद की, लहरें कभी उठती नहीं । जिसमें नयादि विचार की, पड़ती नहीं भँवरें कहीं॥ वह ही सुदृढ़ परमात्मा, परमात्मा अभिराम है ।
यह आत्मा है क्षुद्र सर परमात्मा जल-धाम है । आत्मा और परमात्मा वास्तव में समान अर्थी हैं। भद केवल इतना ही है कि साधारण आत्माओं नं विकल्प भंद की लहरें उठती है, पर परमात्मा इन सबसे रहित होता है। दूसरे शब्दों में जब सान्मा अपने शुद्ध म्वभाव में स्थिर हो जाता है, तब परमात्मा की संज्ञा प्राप्त कर लेता है।
अन्तरात्मा
विन्यान जेवि जाते, अप्पा पर परषये । परिचये अप्प मद्भावं, अंतर आत्मा परषये ॥४९॥ जिस आत्मा के पास असिवत् , तीक्ष्ण भेद-विज्ञान है । 'यह आत्मा है और यह पर है', जिसे पहिचान है। जो आत्मा की शुद्ध सत्ता से, नहीं अनभिज्ञ है ।
भव्यो वही मविवेक, अंतर-आत्म सद्विज्ञ है ।। जिसके पास भद-विज्ञान रूपी कसौटी विद्यमान है जिसमें इतना विवेक है कि वह स्व और पर की पहिचान कर सकें और जो आत्मा के सत्ता रूप शुद्ध स्वभाव से पूर्ण परिचित है, वही आत्मा अन्तरात्मा है. एसा समझना चाहिये ।