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सम्यक आचार
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कुदेवं जेन पूजते, बन्दना भक्ति तत्परा । ते नरा दुष माहंते, मंमारे दुष भीरुहं ॥५६॥ जो नर कुदेवों की सश्रद्धा, नित्य करते वंदना । जो भक्ति में आरूढ़ हो, उनकी करें नित अर्चना ।। वे जीव इस संसार में, अगणित युगों तक घूमते ।
विकराल दुख सहते हुए, जग की दुखद रज चूमते ॥ जो कुदेवों की पूजा करते हैं; जो उनकी वन्दना भक्ति में निरन्तर तत्पर रहते हैं, पस मानव इस भयानक संसार में अनन्त काल तक दुःख सहते हुए विचरण करते रहते हैं।
कुदेवं जेन मानते, अस्थालं जेवि जायते । ते नरा भयभीतस्य, मंसारे दुष दारुनं ॥५७॥ जो जीव गाते हैं कुदेवों की. सतत विरदावली । जो नित्यप्रति ही छानते, रहते कुदेवों की गली ॥ उनका कभी मिटता नहीं, संसार से आवागमन ।
भव-वावली में वे लिया करते, समय जीवन मरण ॥ जो कुदेवों की मान्यता करते हैं या जो उनकी अराधना के लिये उनके स्थानों में जान है. वे मनुष्य इस दुःखपूर्ण संसार से कभी निवृत्त नहीं होते और हमेशा ही वे इस भव-कृप में जन्म लेकर भय-भीत बने रहते हैं।