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सम्यक आचार
कुगुरुं पारधी मंजुक्तं, मंमार बन आश्रयं । लोक मूढस्य जीवस्य, अधर्म पामि बंधनं ॥२॥ जो गुरु नहीं हैं कुगुरु हैं, जो कुगुरु ही न, बहेलिये । वे घूमते संसार-वन में, हाथ में फंदे लिये ॥ जग-मूढ़ता-स्थित जीव जो, बसते जगत के बीच हैं । मिथ्यात्व-बंधन में उन्हें, नित फांसते वे नीच हैं।
खोटे गुरु बहेलियों के समान हुआ करते हैं, जो संसार रूपी बन में अपना अड़ा जमाकर वैट रहते हैं। इनके शिकार होत है, देखा-दग्बी करने वाले भद-विज्ञान से रहित, लोकमृढ़ता में फंसे हुए प्राणी। इन अंधविश्वासी मानवों के आगे ये कुगुम रूपी बहेलिये अपना अधर्म रूपी फंदा डाल दन हैं श्रार उसमें इन भोले जीवों को फांम लिया करते हैं।
अरंडते ते बने जीवा, वृप जाल पारधी करं । विस्वामं अहं बंधे, लोकमृदस्य किं पम्यति ॥८३॥
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मिथ्यात्व-माया के कुगुरु जन, फेंकतेजय जाल हैं । मोहान्ध फंस जाते वहीं, उस जाल में तत्काल हैं । मिथ्यात्व कर देता उन्हें, इस भांति से बेहाल है । उनको न होता भान यह, हम फंस रहे, यह जाल है।
संसार बन के प्राणी रूपी पखेरु कुगुरु रूपी बहेलियों के द्वारा बिछाये हुए जाल में एक एक करकं फंस जाते हैं, वे संसारासक्त प्राणी इस बात को नहीं देखते कि वह पारधी के द्वारा बिछाया हुआ कोई जाल है और अगर मैं इसमें के दाने चुराने गया तो सिवा अपने प्राणों को फँसा देने के मेरे हाथ कुछ भी नहीं आयेगा।