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सम्यक आचार
कुगुरुं अधर्म प्रोक्तं च कुलिंगी अधर्म मंचितं । मानते अभव्य जीवम्य, मंमारे दुष कारणं ॥१४॥ जो हैं अभव्य नहीं जिन्हें, चिर शान्ति सुख की कामना । वे कुगुरु के ही धर्म की, करते सतत आराधना ॥ जो हैं कुलिंगी साधु उनके, वे चरण नित चूमते ।
मिथ्यान्व बंधन बाँध ऐसे. कुजन भव भव घूमते ।। जो अभव्य जीव है या जो जीव संसार में ही बंध रहना चाहत है. व कुगुरु के कथिन अधर्म को धर्म कहकर ग्रहण कर लेन है और मिथ्या वेषधारी माधु को माधु कहकर मान लेते हैं और उनकी उपामना करने लग जाते हैं. पर भेद-विज्ञान शून्य उनका यह कार्य संमार को बढ़ाने वाला ही होता है।
निःया धर्म की उपासना अधर्म लक्षणम्चैव, अनृतं अनत्यं श्रुतं । उत्माहं महितं हिना, हिंमानंदी जिनागमं ॥९५॥ जिसका असत् श्रुत मात्र में, मिलना मुजन ! विस्तार है । मिथ्यात्व मायाचारिता का. जो वृहत् आगार है। कट दानवी हिंसा ही जिसका. लक्ष्यविन्द महान है ।
वह ही मुमुक्षु अधर्म है, करता जिनागम गान है। जैन धर्म अधर्म किसको कहता है ? उसे. जिमके अाधार मिथ्यात्व और अमत्य से भरे हुए शाम्म्र होः जो हिंसा करने के लिये प्रोत्साहन देता हो तथा जिममें ऐसे पाठों की भरमार हो कि पढ़ने वाले का मन हिंमा की भावनाओं से ओत प्रोत हो जाये।