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सम्यक् आचार
चोरी कृत व्रतधारी च, जिन उक्तं पद लोपनं । अमाम्वतं अनृतं प्रोक्तं, धर्म रन विलापितं ॥१६॥ जो जीव चार्यानन्द से, बिलकुल पराङ्मुख हो चुके । व्रत-श्रृंखला में बद्ध हो, जो चौर्य से कर धो चुके ।। जड़ कथन कर. जिनवचन यदि वे. लुप्त करते हैं कहीं ।
तो वे अमृत कर, धम-मणि को फेक देते हैं वहीं ॥ जो जीव चौर्य विकथाओं को नहीं सुनता है, न दुसगं को सुनाता है तथा जिसने प्रमुखता से चोरी न करने का व्रत ले लिया है, वह यदि जड़ पदाथों का, पुद्गल का या अनात्मा का कथन करता है; उपदेश देता है तो वह चोरी ही करना है। चारी माधारण नहीं-जिनेन्द्र के वचनों की चोरी वह चोरी जिससे धर्म-रत्न का बिलकुल लोप ही हो जाता है।
सप्त व्या
रति
विकहा अधम मूल-म, अधर्म मंस्थितं । ते जरा भवनि पुनः पुनः ॥१०७॥ भव्यो ! जहाँ कि अधर्म की, चारों कथायें मूल हैं। सातों व्यसन उप ही जगह, उसके ठिकाने, कूल हैं । जो जीव इस रिपु-राशि से. किंचित बढ़ाता राग है । वह मूढ़ समझो, भवदुखों से खेलता बस फाग है ।।
हे बुद्धिमानो ! जहां विकथाएं अधर्म की जड़ है, वहां व्यसन उसके रहने के ठिकाने हैं। जो मनुष्य इन विकथाओं व व्यसनों से राग बढ़ाता है, वह भव-सागर में बार बार दुःख उठाने को जन्म धारण करता रहता है।