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सम्यक् आचार
। जिन लिंगी तत्व वेदन्त, मुद्ध तत्व प्रकामकं । "कुलिंगी तत्व लोपंत, परपंचं धर्म उच्यते ॥ १२६ ॥
सर्वज्ञ-भाषित धर्म के जो, पूज्य साधु महान हैं। वे शुद्ध आत्मिक तत्व का ही, नित्य करते गान है ॥ पर जो कुलिंगी साधु हैं, वे आत्मतत्व न जानते । आडम्बरों को ही कि वे वस, पुण्य धर्म बखानते ॥
श्री वीनगग प्रभु के बनाये हुए मार्ग पर चलने वाले जो माधु है, व मंसार में शुद्धात्म तत्व का ही प्रकाश करते हैं, किन्तु उनसे विपरीत मार्ग पर चलने वाले माधु शुद्धात्म तत्व को नगण्य ठहराकर उसका तो लोप कर दन है और बाह्याडम्बर को ही एकमात्र धर्म वनलाकर, उसका ही उपदेश जनमाधारण को देते हैं।
ते लिंगी मृढ दिस्टी च, कुलिंगी विस्वानं कृतं । दुरबुद्धि पामि बंधते. संभारे दुप दारु ॥ १२७॥ जो मूढ़ हैं; जिनको हिताहित का न कुछ भी ध्यान है । उनको कुलिंगी साधु पर, होता सहज श्रद्धान है ॥ उनके वही श्रद्धान बनते, स्वयं उनको पाश हैं । " उपहार में वे मूढ़ पाते, नित भवोंभव त्रास हैं ॥
जो अज्ञान मृष्टि पुरुष होते हैं, वे कुलिंगी या खोटे वपधारी साधु पर विश्वास कर लेन है। फल यह होता है कि वे मतिमंद अपनी भेद-विज्ञान शून्यना के कारण अपनी ही दुर्बुद्धि के पाश में बंधकर मंमार में नाना भाँति के दुःग्य उठाते फिरते हैं ।