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सम्यक आचार
जे जीव पंथ लागते, कुपंथं जेन दिस्टते । विस्वास दुस्ट नंगानि, ते पारधी दुप दारुनं ॥ १२२ ॥ जो जीव को सत्पन्थ पर. लगने से नितप्रति रोकते । अपनी कुसँगति से जो, औरों को नरक में झोंकते ॥ जिनकी रगों में मात्र दिखते, कुपथ के ही कूप हैं । ऐसे मयंकर पारधी, प्रत्यक्ष भव-दुख-रूप हैं ।
जो रास्ते से लगे हुए जीवों को, विश्वास दिलाकर अपनी दोषपूर्ण संगति से कुपंथ या विनाश कं गम्ने में ले जाते हैं, ऐसे पारधी इस संसार में विकराल दुःखों के जीने जागते स्वरूप हुआ करते हैं ।
संसार पारधी विस्वास, जन्म मृत्युं च प्राप्तये । जे जीव अधर्म विस्वास, ते पारधी जन्म जन्मयं ॥ १२३॥ जो पारधी के हृदय पर, करते अरे विश्वास हैं। वे जीव आवागमन का ही, मात्र पाते त्रास है। पर जो अजान अधर्म पर, करते अरे ! श्रदान है ।
दे पारधी बन बांधते नित, कर्म-बंध महान है ॥ पारधी के विश्वास में फंसनेवाले जोव (पशु पक्षी) तो एक ही बार के जन्म मरण का दुःख उठाते हैं, किन्तु जो मानव कुगुरु-पारधी के मायाजाल में फंस जाते हैं, वे जन्म जन्म के अर्थात् अनन्त जन्म मरम के दुःखों को भोगते हैं।