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सम्यक् आचार
वश्यागमन
विस्वा आमक्त आरक्तं, कुन्यानं रमतं सदा । नरय जस्य मद्धावं, ते भाव विम्बा दिम्हितं ॥ ११८ ॥
जो वेश्यों के प्रम में, आरक्त है, आसक्त है । उसका हृदय कुज्ञान से रहता सदा संयुत्ता है । करती है उसके चित्त में बस, वेश्या ही परिणामन । पूर्णायु कर वह अधम, निश्चित नक में करता मान ॥
जो वेश्या के प्रेम में आमत रहन है, व मानव सटा कुज्ञान में ही माण किया करत है । वश्या गामियों के मनम मदा वश्या का ही ध्यान बना रहता है. अनः कुशील ने करने के परिणामस्वरूप उनका निश्चित ही नर्क में मद्भाव होता है।
· पारधी दुस्ट मद्धावं. रोद्र ध्यानं च मंजुलं !
आरति आरक्तं जेन. ले पारधी च मंजतं ।। ११९ ।।
'जो निदर भावों से भरा: कटु.गंद्र का जो धाम है । सर्वज्ञ कहते, 'पारधी', उस जीव - का ही नाम है ।।
जो जीव आत ध्यान में ही, लिप्त है आसक है । 'वह भी सरासर पारधी की, भावना से युनः है ॥
जो दुष्ट और कर भावों से संयुक्त रहता है; दिनरात जिसके रौद्रभान के चिन्तवन में ही बीत है नथा आध्यान से भी जिसका मन रिक्त नहीं रहता है, एसे दोषां से 'पूर्ण जो पुरुष रहता है. वह 'पारधी' कहलाना है।