________________
६६ ]
सम्यक् आचार
अनृतं असत्य भाव च, कार्याकार्य न मुच्यते । ते नरा मद्यपा होति. मंमारे भ्रमनं नदा ॥ ११४ ॥ जो नर अचेतन और चेतन. को नहीं पहिचानते । क्या कार्य और अकार्य क्या, जो नर नहीं यह जानते ॥ अविवेक-मदिरा से छलकतीं, पी निरंतर प्यालियाँ ।
वे मसी संसार की नित. छानते हैं नालियों ॥ जो मनुष्य चेतन और अचंतन या मत्य और असत्य पदार्थ के भेदाभेद को नहीं जानते हैं, वे मा एक मद्य पीने वाले के महश ही होते हैं और जिस तरह मद्यपी को अपने कुकर्म का फल भोगने पर विवश होना पड़ता है, उसी तरह इन अविवेकियों को भी संसार सागर में घूमकर अपने अज्ञान का फल भोगना ही पड़ता है।
जिन उक्तं न मार्द्धन्ते, मिथ्या रागादि भावनं । अनृतं नृत जानति, ममत्वं मान भूतयं ॥ ११५॥
प्रभु की सुधा सी गिरा पर, जिसको नहीं श्रद्धान है। मिथ्यात्व में ही लीन जिसका, नित निरन्तर ध्यान है। जो जड़ अचेतन को ही, चिर, ध्रुव, सत्य कहता मूढ़ है। मिथ्यात्व का उस पर समझ लो, भूत बस आरूढ़ है।
जो मर्वज्ञ, वीतराग प्रभु के वचनों पर श्रद्धान नहीं करके, संसार के मिथ्या रागों में चूर रहता है और अचेतन पदार्थों को ही एकमात्र सारभूत पदार्थ समझकर उनकी, शाश्वत पदार्थों-सी विनय भक्ति करता है. उसके शीश पर पाठों याम बस मिथ्यात्व का भून ही सवार रहता है।