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सम्यक आचार
स्वादं विचलितं जेन, मंमूर्छनं तस्य उच्यते । जे नरा तस्य भुक्तं च, तिर्यंच नरय स्थितं ॥ ११० ॥
जिन वस्तुओं के स्वाद, अपने स्वाद छोड़ बिगड़ गये । उसही समय उनमें वहाँ, सम्मूर्च्छन त्रस पड़ गये || इन वस्तुओं से जो उदर भरते, कि वे अज्ञान हैं ।
र नहीं, नर-योनि में हैं, पर तिर्यच समान हैं ||
जिन पदार्थों के स्वाद, अपना मूल स्वाद छोड़कर विकृत हो जाते हैं, उनमें असंख्यात सम्मूर्च्छन जीव पड़ जाते हैं। जो मनुष्य इन विकृत स्वाद वाली वस्तुओं का उपभोग करते हैं, वे तिर्यच पर्याग में जाकर विविध जाति के पशु पक्षी बनते हैं ।
विदल संधान बंधानं, अनुरागं जस्य गीयते । मनस्य भावनं कृत्वा, मामं तस्य न सुद्धये ॥ १११ ॥
जो द्विदल हैं या जिस किसी भी वस्तु में दो दाल हैं । उनको दही के साथ खाना, दोप ये विकराल हैं | संधान भी अनमक्ष्य पापों के विशद भंडार हैं जो नर इन्हें खाते हैं, वे करते अमिष - आहार हैं ॥
जो मनुष्य विल अर्थात जिस अन्न में व मेवा में दो दालें होती है, दही के साथ मिलाकर खाता है. या निश्चित अवधि के बाद का अचार या मुरब्बा सेवन करता है, वह निश्चित रूप से मांसभक्षण करना है क्योंकि इन वस्तुओं के खाने का राग, उसके हृदय से छूट नहीं पाता है।
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