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सम्यक् आचार
दर्सन न्यान चारित्रं, मय मूर्त न्यान संजुतं । सुद्धात्मा तत्व लोपंते, अतेस्यं दुर्गति भाजनं ॥१३४॥ निमूर्त रत्नत्रय मयी, जो शुद्ध आत्मिक धर्म है । उस धर्म का जो लोप कर, करता महा दुष्कर्म है ॥ वह चौर्य के कटु बंधनों से, बांधता निज गात्र है ।
संसार में बनता कि वह. नाना कुगति का पात्र है ॥ दर्शन, ज्ञान और चारित्र से पूर्ण जो निष्कल, निराकार आत्मा है, जो उसका लोपकर. संसार को जड़-पूजा सिखाता है, वह पुरुष चौर्य का पात्र बनकर अनेक दुर्गतियों में भ्रमण करता है।
परस्त्री-रमण परदारा रतो भावं, परपंच कृतं सदा। ममतं असुद्ध भावस्य, आलापं कूड उच्यते ॥१३५॥ जो नर परस्त्री-रमण के, कटु भाव में आसक्त हैं । वे नियम से रहते प्रपंचों से, सदा संयुक्त हैं ॥ उनके हृदय क्या ? मोह के होते विशद भण्डार हैं।
वचनावली में छल कपट की नित्य बहती धार हैं ॥ जो परस्त्री-रमण के भावों में रत रहता है, वह पुरुष निश्चय से सांसारिक प्रपंचों में फंसा हुआ होता है; उसका हृदय अशुद्ध भावों से पूर्ण मोह का एक विशाल भागार होता है और उसके मुख से जितने भी शब्द निकलते हैं वे रंचमात्र भी छल कपट से रिक्त नहीं होते। सारांश यह कि परस्त्रीगामी पुरुष प्रपंच, मोह और छल, कपट आदि नाना दुर्गुणों से पूर्ण होता है।