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सम्यक् आचार
अबंभं कूड सद्भावं, मन वचनस्य क्रीयते । ते नरा व्रतहीनस्य, संसारे दुष दारुनं ॥ १३६ ॥
अब्रह्म मन, वच में सृजन करता है मायाचारिता । सद्भावनाओं की बना देता, हृदय में वह चिता ॥ सेवा सतत अब्रह्म की, करते अरे जो मुद हैं । वे जीव शूलों से भरे, भव - मार्ग पर आरूढ़ हैं ||
अब्रह्म या परस्त्री-रमण मन और वचन दोनों में छल कपट के भाव पैदा कर देता है। जो इस कुशील का आचरण करते हैं, वे पुरुष सारे व्रतों को पालते हुए भी, निरे व्रतहीन हैं और इस दुर्गुण के परिणामस्वरूप संसार-सागर में अनेकों भयंकर दुःख उठाते हैं ।
कषायं जेन विकहस्य, चक्र इन्द्र नराधिपा । भावनं तत्र तिस्टंते, पर दारा रतो नरा ॥ १३७ ॥
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जिस विषयलोलुप जीव की, परनारि में आसक्ति है । विकथाजनित आनन्द में, रहता मगन वह व्यक्ति है ॥ वह सोचता है " प्राप्त हो जो हमें नृप की सम्पदा । तो हम भी राजाओं सरीखा, भोग मृदु भोगें सदा " ॥
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जो पुरुष परस्त्री-रमण के भावों में आसक्त रहता है, वह विकथाजनित श्रानन्दों में अत्यधिक रस लेता हुआ दिखाई देता है । कषायों का तो वह दास बन जाता है। लोभ की मात्रा उसमें इतनी बढ़ जाती है कि वह सोचता रहता है कि अगर मुझे चक्रवर्ती, इन्द्र या किसी नरेश की सम्पदा प्राप्त हो जावे तो मैं अनेकों भोगों को भोगूं और समृद्धि से रहकर अपना जीवन, पूर्ण मेश्वर्य-विलास में व्यतीत करूँ ।