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सम्यक् आचार .
हिंमानंदी, अनुतानंदी, स्तेयानंद अबभयं । रौद्रध्यानं च संपूर्ण, अधर्म दुषदारुनं ॥९६॥ जो घोर हिंसा और मिथ्यावाद में रंजित रहे । जो चौर्य का पोषण करे, अब्रह्मता को शुचि कहे ॥ इस भाँति चारों रौद्र का जो, बृहत् पारावार है ।
वह ही मुमुक्षु अधर्म है, जो दुःख का भंडार है ॥ अधर्म उसे ही माना गया है कि जिसमें हिंसानंदी, मृषानंदी, स्तेयानंदी और अब्रह्मानंदी इन चार गद ध्यानों का सविस्तार वर्णन पाया जावे। ऐसे विषयों से पूर्ण अधर्म निश्चय हो दारुण दुःख का देने वाला होता है।
आरति रौद्र मंजुक्तं. ते धर्म अधर्म संजुतं । रागादिमलमंपूर्न अधर्म मंमार भाजनं ॥१७॥ जो चार विधि के आर्त ध्यानों से भरा है, पूर्ण है । जो रागद्वेषादिक मलिनतम, भाव से संपूर्ण है ॥ जो रौद्र ध्यानों का गहन, विटपी सरिस आगार है ।
वह ही मुमुक्षु अधर्म है, संसार का जो द्वार है । अधर्म में आर्त और रौद्र इन दो ध्यानों का विशेषतया वर्णन पाया जाता है या यों कहिये कि अधर्म में जिन उपदेशों का समावेश होता है, उनमें आर्त और रौद्र इन दो ध्यानों का स्पष्ट संकेत मिलता है। यह अधम रागद्वेष की भावनाओं को विस्तीर्ण करने वाला होता है और इसलिये मनुष्य को बार २ मनार में आवागमन करने के लिये बाध्य करता रहता है।