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सम्यक् आचार
कुगुरम्य गुरूं मान्ये, मृढ दिस्टि च मंगता। ते नरा नरयं जांति, मुद्ध दिस्टी कदाचना ॥८६॥ जो मूढ़ कहते अगुरु को. मेरे यही गुरुदेव हैं । जो मूदृष्टि मनुष्य का. करते कुसंग सदैव हैं । वे नर कुगति को बांध. भीषण नर्क में जाते सही । सत् दृष्टि की उनको कभी, फिर प्राप्ति होती है नहीं ।
जो अगुरुओं को अपना गुरु मानते हैं और मिथ्याट्रियों की मंगनि कग्न है. व मनुष्य अवश्य ही नर्क में जान हैं और शुद्धदृष्टि का लाभ फिर उन्हें कभी नहीं होता है ।
अनृतं अचेतं प्रोक्तं, जिन द्रोही वचन लोपन । विस्वानं मूढ जीवस्य, निगोयं जायते धुवं ।।८।। जिन के वचन को लुप्तकर, उपदेश जो देते, अरे ! वे गुरू नहीं हैं. किन्तु वे जिनराज द्रोही हैं वरं ।। जो मू; करते, इन कुगुरुओं में तनिक विश्वास हैं । व अन्धविश्वासी सतत, करते निगोद नियाम हैं ।।
मज्ञ ने शुद्धात्म नत्य की जो महत्ता बनाई है, उसका लोप कर. जो अचनन और अन्त पदय की उपासना करने का उपदेश दत है, उन्हें ज्ञात होना चाहिये कि चूंकि व आत्र के वचनों का लापन कर रहे हैं, अत: वे निश्चित ही आनद्रोही है । एस मिथ्यापदशकों में जो मनुष्य विश्वास करते है. व निश्चय हा नि गोद के पात्र बनते है।