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सम्यक् आचार
मिथ्या देवं च प्रोक्तं च, न्यानं कुन्यान दिस्टते । दुरबुद्धि मुक्ति मार्गस्य, विस्वान नरयं पतं ॥५८॥
रागादि दोपों से भरे, मिथ्या कुदेवों का कथन । शशि से समुज्ज्वल ज्ञान पर, घन सदृश बनता आवरण ।। चिर सुख-सदन की राह में, वुद्धि फिर जाती नहीं ।
पतितोन्मुख बहिरात्माएं, सुख कभी पाती नहीं ॥ इवां के विपरीत गुणों को धारण करने वाले कुदवों का कथन, ज्ञान को भी मियाज्ञान में परिणत कर देता है। इन कुदेवों की आराधना से जिनकी बुद्धि दुर्बुद्धि में बदल जाती है, वन फिर मुक्ति मार्ग में जाने का साहस नहीं करतेः उनकी बुद्धि मुक्ति से परान्मुग्ब हो जाती है और पल यह होता है कि उनके विश्वास के कारण व नर्क के पात्र बनते रहते हैं।
जम्म देव उपायंते, क्रियते लोकमुढयं । तत्र देवं च भक्तं च, विग्जामं दुर्गनि भाजपं ॥५९॥ सर्वज्ञभापित देव से, जिनके हृदय प्रतिकूल हैं । जन मूदता बम जो. कुदवों को चढ़ाते फूल हैं । जिनको कुदवों की विनय. देती परम आनन्द है । मिलती उन्हें वस अमरवेला सी नरक निष्कन्द है ॥
जो देवाचित गुणों से पृण मुदवों या वास्तविक दवा की आराधना तो नहीं करत. किन्तु लोगों की दवादेवी, लोकमृदना वश होकर कुदवों का बंदन करते है; कुदवों की भक्ति करने है या कुदवों में विश्वाम करते हैं, व मानव अवश्य पतन के गड्ढे में या नर्क में गिरत है ।