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सम्यक् आचार ...........
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कुगुरुं राग संबंध, मिथ्या दिस्टी च दिस्टते । राग दोष मयं मिथ्या, इन्द्री इत्यादि सेवनं ॥७६॥ जो कुगुरु होते, राग में रहते सदा वे लिप्त हैं । मिथ्यात्व से उनके हृदय, रहते न रंच अरिक्त हैं । संसार को जो दृढ़ बनाने में, महान प्रवीण हैं ।
रहते कुगुरु उन ही पंचेन्द्रिय, भोग के आधीन हैं। जो कुगुरु या खोटे गुरु होते हैं वे राग में संतप्त रहा करते हैं, अत: इस राग भाव के संसर्ग से उनकी कपि पर असम्यक्त्व का पर्दा चढ़ जाता है। राग-द्वेषों से भरे हुए और देखते देखत विनाश हो जान वान जो पंचेन्द्रियों के विषय है, वं कुगुरु उन्हों विषयों के आधीन रहत हुप पाये जाते हैं।
मिथ्या ममय मिथ्यं च, प्रकृति मिथ्या प्रकासये। मुद्ध दिस्टी न जानते, कुगुरु मंग विवर्जए ॥७॥ मिथ्या कुवचनों से रँगे. जिन आगमों के पृष्ठ हैं । उपदेश उन ही का सतत् देते कुगुरु निकृष्ट हैं । जड़-कथन में ही शब्द की वे, जालियाँ रचते रहे । एसे कुगुरु बहिरात्माओं से, सुमति बचते रहें ॥
जो कुगुम होते हैं, वे सदा ऐसे शास्त्रों का ही उपदेश दिया करते हैं, जो मिथ्याज्ञान से परिपूर्ण रहते हैं। विवेचन भी उन्हीं वस्तुओं का करते हैं जो क्षणभंगुर पर्याय वाली होती है। शुद्धात्मा तत्व क्या है, इमको कुगुरु नहीं जानते हैं, अत: बुद्धिमानों को उचित है कि वे ऐसे मिथ्यामार्ग-गामी गाओं की संगति से सदा ही बचते रहें।