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सम्यक औचार
आरति रौद्रं च सद्भावं, माया क्रोध मयं जुतं । कर्मना अभावस्य, कुदेवं अनृतं परं ॥ ५४ ॥
जो आर्त्त रौद्र ध्यान के, नरकों से गहरे कुण्ड हैं जिनके मलिन तन पर कषायों के विचरते झुण्ड हैं ॥ ऐसे कुदेवों की विनय, मिथ्यात्व है; अज्ञान है उनकी असत् विरदावली करती मलिन सत्ज्ञान है ||
और रौद्र इन दो अशुभ ध्यानों का चिन्तवन करते हैं: माया, क्रोध, मद आदि
जो दुर्गुणों से जो परिपूर्ण रहते हैं, ऐसे मिथ्या देवों की विनय या पूजा करना महान अज्ञानता है. मिथ्यात्व है । उनकी मिथ्या प्रशंसा भी, भावों को अशुद्ध बनाने में सहायक होती है, इसका ध्यान रखना चाहिये ।
अनंत दोष संजुक्त, सुद्ध भाव न दिम्टते । कुदेवं रौद्र आरूढं, आराध्यं नरयं तं ॥ ५५ ॥
जो जन अनंतानंत दोषों से मलों से युक्त हैं । ऐसा न कोई अगुण जिससे, वे तनिक भी मुक्त हैं ॥ जिनमें न शुभतर भाव हैं, जो रौद्र ध्यानारूढ़ हैं । ऐसे कुदेवों की विनय से, नर्क जाते मूढ़ हैं ||
जो अनंत दोषों के घर हैं: शुद्ध भावों की जिनके हृदय में छाया तक नहीं दिखाई देती हैं। तथा जो रौद्र ध्यान के चिन्तवन करने में ही संलग्न रहा करते हैं, ऐसे जो देव नाम धारी कुदेव होते हैं, उनकी आराधना, मनुष्य को पतन के गर्त में या नर्क में डालने वाली होती है।