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सम्यक् आचार
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मिथ्यात मति रतो जेन, दोमं अनंता नंतयं । सुद्ध दिस्टि न जावंते, असुद्ध मुद्ध लोपनं ॥३०॥ जो मिथ्यामति के सरवर में, नितप्रति करता क्रीड़ा । वह अनंत दोषों का भाजन, होकर सहता पीड़ा ॥ दर्शन-मणि के सपने तक में, उसको दर्श न होते ।
यत्र तत्र वह दुर्गतियों में, खाता नित प्रति गोते ॥ जो पुरुष मिथ्याज्ञान में क्रीड़ा करता है, वह अनंत दोषों का भाजन बनता रहता है । शुद्ध दृष्टि क्या वन्तु होती है, इसे वह स्वप्न तक में नहीं जान पाता है और कुज्ञान में रत रहते हुए, विकराल दुःख सहा करता है।
वैराग्य भावनं कृत्वा, मिथ्या तिक्त त्रि भेदयं । कमायं तिक्त चत्वारि, तिक्तते सुद्ध दिस्टितं ॥३१॥ भव्यो ! यदि तुम यह चाहो, हों शुद्धदृष्टि के धारी । तो ध्याओ वैराग्य-भावना, सर्व प्रथम सुखकारी ॥ त्यागो त्रय मिथ्यात्व और फिर चार कषायें छोड़ो।
शुद्ध दृष्टि हो शाश्वत सुख से, फिर तुम नाता जोड़ो॥ हे मोक्षाभिलाषी जीवो ! यदि तुम यह चाहते हो कि हमें शुद्ध दृष्टि प्राप्त हो जावे तो तुम सबसे प्रथम वैराग्य भावनाओं का चिन्तवन करो; तत्पश्चात तीन मिथ्यात्वों का परित्याग करदो और इसके बाद चार कषायों से नाता तोड़कर, मोक्ष से अपना पल्ला जोड़ लो।