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सम्यक् आचार
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षटकर्म समिक्तं सुद्धं, संमिक अर्थ मास्वतं । मंमिक्तं सुद्ध धुवं साई, संमिक्तं प्रति पूनितं॥३८॥ वे ही सत षट्कर्म कि जिनमें, 'दर्शन' पद पद डोले । मुखरित होकर नित जिनमें से, आत्म-भावना बोले । 'दर्शन' युत षट् कर्म शुद्ध हैं, ध्रुव हैं. श्रद्धास्पद हैं ।
मोक्ष महल के अभिनव पथ को, ये विद्युत् के पद हैं ।। गृहस्थ के लिये निर्धारित किये गये दैनिक षट् कर्म भी तभी शुद्ध कहे जाते हैं, जबकि उनके नाथ शुद्ध सम्यक्त्व की पुट लगी हो । सम्यक् विशेषण सहित जो षट् कर्म सम्पादन किये जाते हैं वे शुद्ध होते हैं। धूव होते है और श्रद्धास्पद होते हैं। इतना ही नहीं, पूर्णता या मोक्ष की ओर जाने वाले पदों नवे एक स्फूर्ति उत्पन्न कर देते हैं ।
शुद्धात्मा का ध्यान मंमिक देव उपाद्यते, राग दोष विमुक्तयं । अरूपं सास्वतं सुद्धं, सुयं आनंद रूपयं ॥३९॥ राग द्वेप से वंचित है जो, परंज्योति परमेश्वर । शुद्ध बुद्ध आनन्द अरूपी, शाश्वत स्वयं जिनेश्वर ॥ रत्नत्रय से हो जाता है, जिसका हत्तल पावन ।
वह ऐसे शुद्धात्म-प्रभू का, ही करता आराधन ।। जिसको शुद्ध दृष्टि प्राप्त हो जाती है वह राग द्वेष से विमुक्त, निराकार, शाश्वत, शुद्ध, स्वयंभूत, आनन्दम्वरूप जो शुद्धात्मा है, उसी परमात्मा की उपासना व वन्दना करता है।