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सम्यक् आचार
सोऽहं की अर्चना
देवं च न्यान रूपेन, परमिस्टी च संजुतं । मो अहं देह मध्येषु, यो जानंति स पंडिता ॥४२॥
पंच परम जिन परमेश्वर हैं, मोक्ष महल के वासी । अगम, अगोचर, अलख, अवाधित, अजर अमर अविनासी ॥ मैं भी जिन हूँ, इस काया के भीतर मेरा घर है । जो जाने यह मर्म वही नर, पंडित प्रज्ञाधर है ॥
पंच परम प्रभुओं के सहित जो कोई परमात्मा है, वह मैं ही अपने इस देह रूपी देवल के भीतर है। जो मानव इस मर्म को जानता है वही सम्यग्दृष्टी जीव प्रज्ञावर या पंडित है.
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कम अस्ट नियुक्त, मुक्ति स्थान तिति । मो अहं देह मध्येषु, यो जाति में पंडिता ||४३||
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वसु मल क्षय कर जीती जिनने, जन्म मरण की पीड़ा । सिद्ध क्षेत्र में करते ऐसे सिद्ध जिनेश्वर क्रीड़ा ॥ मैं भी तो हूँ सिद्ध प्रभो, यह तन मेरा मन्दिर है । जो जाने यह मर्म वही नर, पंडित प्रज्ञाधर है ॥
सिद्ध या जो महापुरुष कृतकृत्य हो चुके हैं, उनकी महत्ता यही है कि वे आठ कर्मों की बेड़ियों को काट चुके हैं और मुक्ति स्थल में रहते हैं। मैं भी सिद्ध हूँ । अंतर इतना ही है कि सिद्धशिला के स्थान पर मेरा घर मेरे हृदय रूपी मंदिर में ही है । जो इस महत्वपूर्ण तथ्य को जानता है वही वास्तविक पण्डित है ।