________________
२६ ]
सम्यक आचार
देव देवाधिदेवं च, नंत चतुस्टय मंजुतं । उर्वकारं च वेदंते,तिस्टितं मास्वतं धुवं॥४०॥ देव और देवों का अधिपति, देवाधिप, अधिनायक । चार चतुष्टय शोभित होते, जिसमें नित सुखदायक । प्रणव मंत्र में भी जिस प्रभु का, निर्मल वास सुहाता ।
शुद्धदृष्टि उस शुद्धातम को, ही निज शीश झुकाता ॥ जो देव और देवों का देव है; अनंत चतुष्टय से जो मण्डित है तथा स्वयं ॐकार पद में जिसका वाम है, एसा जो शुद्धात्मा म्पी सर्वशक्तिमान परमात्मा है, शुद्धदृष्टि बस उसी का आराधन करता है।
उर्वकारस्य ऊर्धस्य, ऊर्ध मद्भाव तिस्टतं । उर्व ह्रियं श्रियं बन्दे, त्रिविधि अर्थं च मंजुतं ॥४१॥ पंच परम प्रभु का जिस पद में, है अस्तित्व निराला । चतुर्विंशि के पुष्पराग से सुरभित जिसकी माला ॥ सुमुखि मुक्ति जिस पर, बिखराती है अपनी फुलवारी ।
शुद्ध दृष्टि उस ओम् मंत्र के, होते पूर्ण पुजारी ।। जो शुद्ध दृष्टि के धारी होते हैं, वे ऊर्ध्व स्वभावधारी, शुद्ध सत्तात्मक भावों के निधान उस प्रकार का ही वंदन करते हैं, जो पंच परमेष्ठी, चतुर्विंश तीर्थंकर और मुक्ति रूपी लक्ष्मी का एक साथ एकमात्र निवासस्थान है।