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सम्यक आचार
संमिक दमेनं युद्धं न्यानं आचरण मंजुतं । सार्द्धति-त्रि-संपूर्न, कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं ॥ ३६ ॥
आत्म-प्रतीति ही श्री गुरु कहते, सच्चा सम्यग्दर्शन । आत्म-ज्ञान ही ज्ञान, आत्म-अनुभव ही चारित है मन ! कुज्ञानों से शून्य जहां दिखती रत्नत्रय - झांकी । बिछ जाती है राह वहीं पर, चिर-सुख - राशि रमा की ||
शुद्ध आत्मा की प्रतीति का नाम ही सम्यग्दर्शन है । उसके सहित जो ज्ञान होता है, वही सम्बग्ज्ञान है और उसके सहित ही जो आचरण होता है, वही सम्यकूचारित्र है । इन तीनों की, तीनों ही कुज्ञान से शून्य, एकता का नाम ही पूर्णत्व अथवा मोक्ष है।
संमिक संजम दिस्टा, मंमिक तप सार्द्धयं । परिनै प्रमानं सुद्धं, असुद्धं सर्ब तिक्तयं ||३७||
सम्यक दर्शनयुत संयम ही, शुचि सम्यक् संयम है । वह ही सम्यक् तप है जिसमें सम्यग्दर्शन क्रम है ।।
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सम्यक् संयम, सम्यक् तप का ही जब साधन होता । तब ही चेतन के भावों में, शुद्ध परिणमन होता ||
सम्यग्दर्शन या आत्मप्रतोति के साथ पाला हुआ संयम ही यथार्थ संयम है और उसी के साथ पा हुआ तप यथार्थ तप है। जब सब अशुद्ध विकारी भावों को छोड़कर उक्त प्रकार से साधना की जाती है तभी आत्मा के भावों में शुद्ध परिणमन होता है ।