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सम्यक आचार
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संमिकदिस्टिनो जीवा, सुद्ध तत्व प्रकासकं । परिनाम सुद्ध मंमिक्तं, मिथ्या दिस्टि परान्मुषं ॥३४॥
शुद्धदृष्टि जन शुद्ध तत्व का, ही करता उजियाला । छलका करता शुद्धदृष्टि से, उसका अंतर-प्याला ॥ उसकी हर परिणतियों में, सम्यक्त्व घुला रहता है । मानस तज, मिथ्यात्व-कुण्ड में, हंस न वह बहता है।
जो सम्यग्दृष्टि पुरुष होते हैं, वे शुद्ध आत्मतत्व का ही प्रकाश करते हैं । उनके अंतरंग परिणामों में शुद्ध सम्यक्त्व ही घुला रहता है और वे मिथ्यात्व या मिध्यादृष्टि पुरुपों के रंचमात्र भी संपर्क में नहीं आन ।
मंमिक देव गुरं भक्तं, मंमिक धर्म समाचरेत् । मंमिक तत्व वेदंते मिथ्या त्रिविध मुक्तयं ॥३५॥ सत्य आप्त का ही करता है, शुद्ध दृष्टि आराधन । सद्गुरु को ही करता है वह अपने कर से बंदन ॥ सम्यक् धर्ममयी पथ पर ही, वह निज पैर बढ़ाता ।
त्रय मिथ्यात्व रहित समकित ही, वह अनुभव में लाता॥ सम्यग्दनि पुरुप सन्देव और सद्गुरु की ही उपासना-भक्ति करता है और जो सत् धर्म है उसी के अनुसार वह आचरण करता है। उसके अनुभव का बस एक ही विषय होता है और वह है 'सम्यक्त्व' । जो तीन मिथ्याज्ञान होते हैं, वे उस का स्पर्श भी नहीं कर पाते हैं, वह उनसे मुक्त हो जाता है।