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सम्यक आचार ......।
अनृतं विनासी चिंते, असत्यं उत्साहं कृतं । अन्यानी मिथ्यासद्भावं, सुद्ध बुद्ध न चिंतए॥२०॥ अनृत वस्तुओं के चिन्तन से, मार्ग असत् बढ़ता है । इस पथ को अनुगामी नितप्रति, मिथ्यापथ चढ़ता है। यह मिथ्यात्व जमा लेता है, जिसके उर में डेरा ।
शुद्ध बुद्ध प्रभु का न वहां फिर, रहता नेक बसेरा ।। मिथ्या वस्तुओं के चिन्तवन से मिथ्या कार्यों के करने में उत्साह बढ़ता रहता है। जो इन मिथ्या वस्तुओं का चितवन करते करते अज्ञान मिथ्यादृष्टि हो जाता है, वह फिर इस योग्य नहीं रहता कि वह अपनी आत्मा का, जो शुद्ध बुद्ध प्रभु का पवित्र निवास स्थान है, चितवन कर सके। दूसरे शब्दों में, शुद्ध बुद्ध प्रभु, उस मिध्यादृष्टि के हृदय से कूच कर देते हैं।
मिथ्या दर्सनं न्यानं, चरनं मिथ्या उच्यते ।
अनृतं राग सपूर्न, संसारे दुष वीर्जयं ॥२१॥ मिथ्यादर्शन, ज्ञान, आचरण, ये हैं तीन पनाले । जिनमें बहते रहते हैं नित, राग अशुभ मतवाले ॥ ये तीनों दुख-बीज मनुज को, दारुण दुख दिखलाते ।
अशुभ कर्म से बांध उसे ये, नट सा नाच नचाते ॥ मिध्यादर्शन. मिथ्याज्ञान और मिथ्या आचरण ये तीनों, मिथ्यात्व रागों से परिपूर्ण हैं और इमलिये अनंत दुःखों के दाता हैं। इनके कारण ही प्राणी अनेकानेक अशुभ कमों को बांध कर, इस भयानक संसार-अटवी में परिभ्रमण किया करता है।