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तीन मिथ्यात्व -
सम्यक् आचार
अनादि भ्रमते जीवा, संसार सरन रंजितं । मिथ्यात त्रय संपूर्ण, संमिक्तं सुद्ध लोपनं ॥ १८ ॥
त्रय मिथ्यात्व महा दुखदाई, जन्म-मरण के प्याले । व्यक्त नहीं होने देते ये, दर्शन - गुण मतवाले || इन तीनों मिथ्यात्व मोह की, डाल गले में फांसी । बनता रहता है अनादि से, यह नर भव भव वासी ॥
मिथ्यात्व शुद्ध सम्यग्दर्शन का लोप करने वाला होता है। यह मिथ्यात्व तीन प्रकार का होता
। इसी मिध्यात्व या मिथ्याज्ञान के वशीभूत होकर यह प्राणी इस सार रहित संसार में अनादिकाल से भ्रमण कर रहा है और करता रहेगा ।
मिथ्या देवं गुरं धर्म, अनृत अचेत रागं च
मिथ्या माया विमोहितं । संसारे भ्रमनं सदा ॥ १९॥
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मिथ्या देवों को यह मानव अपने देव बनाता । नित्य अदेवों के ढिंग जाकर, उनको शीश झुकाता ॥ मिथ्या माया में फंसकर यह, बनता अनृत पुजारी । और इसी से भव भव फिर यह बनता दुर्गतिधारी ॥
संसार में आवागमन क्यों होता रहता है ? मिध्यात्व और मायाचार से लिपटे हुए तथा असत्य और अचेत देव, गुरु और धर्म, इन तीनों की उपासना करने से ! मिथ्यादेव, मिध्याधर्म और मिथ्या गुरु, बस ये तीनों ही संसार-भ्रमण के प्रमुख कारण होते हैं ।