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संसार : और वह कैसे मिटे ?
संसार, शरीर और भोग
संसार
संसारे भय दुष्यांनि, वैराग्यं जेन चिंतये । अनृतं असत्यं जानते, असरनं दुष भाजनं ॥ १५ ॥
यह संसार अगम अटवी है, इसमें भय ही भय है । सुख का इसमें अंश नहीं है, हां दुख है; अक्षय है | जग असत्य, जग जड़, जग मिथ्या, जग में शरण नहीं है । दुखभाजन जग से विरक्त हो, जग में सार यही है ।।
यह संसार भय और दुःखों से भरी हुई एक विशाल अटवी है । इसको मिथ्या, जड़ और वास्तविक समझना चाहिये। इस दुःखभाजन संसार में प्राणिमात्र के लिये कोई शरण नहीं है, अतः सार यही है कि मनुष्य इस संसार से सदा विरक्त होने की भावना का ही चितवन करे ।