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सम्यक ओचार
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मिथ्या संयम ह्रदयं चिंते, मिथ्यातप ग्रहमदा।
अांतानंत मंमारे, भ्रमते अनादि कालयं ॥२२॥ ख्याति, लाभ, यश की इच्छा से, संयम पालन करना । स्वर्गादिक मिल जायें इससे, द्वादश तप आचरना ।। ऐसे मिथ्या संयम या तप, बस संसार बढ़ाते ।
जीवों को इस भव से उस भव, मर्कट-तुल्य नचाते ॥ मिथ्या संयम-इम कामना को लेकर संयम पालना कि मुझे संसार में कुछ ख्याति या लाभ मिल जाव और मिथ्या तप-इस इच्छा को लेकर तप करना कि मुझे वैकुंठ या स्वर्ग प्राप्त हो जावे, ये दोनों ही अनंतानंत संसार परिभ्रमण के कारण होते हैं। इन दोनों के चक्कर में पड़कर प्राणी अनादिकाल से आवागमन के पाश में बंध चले आ रहे हैं।
चार कषायें
मिथ्यातं दुस्ट मंगेन, कमायं रमते मदा।
लोभं क्रोधं मयं मानं, गृहितं अनंत बंधनं ॥२३॥ मिथ्यादर्शन-बैरी की कर, संगति अति दुखदाई । लोभ, मान, माया व क्रोध की, करता जीव कमाई ॥ ये कषाय वे, जिनके कर में जन्म मरण का प्याला । जिसमें नित जलती रहती है, धृ धृ विष की ज्वाला ।।
जो प्राणी मियादर्शन या विपरीत श्रद्धान करने लगता है. वह क्रोध, मान, माया व लोभ इन चार कपायों के चंगुल में फँस ही जाता है। ये कपायें वे होती हैं जो बंध की परम्परा को दीर्घकाल तक ग्वींचकर ले जाती रहती है या दूसरे शब्दों में, जिनके हाथों में जन्म-मरण का सूत्र रहता है और जो संसार को अनंतानंत समय तक जन्म-मरण के बंधनों में डालती रहती हैं।