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सम्यक् आचार
देव, गुरु, शास्त्र
देवं गुरं श्रुतं वन्दे, न्यानेन न्यानलंकृतं ।
वोच्छामि श्रावगाचारं अविरतं संमिक दिस्टितं ॥ १४ ॥
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जिन विभूतियों के ज्ञानों से, पाता स्वयं ज्ञान श्रृंगार । ऐसे देव, शास्त्र, गुरु को हो, नमस्कार नित बारम्बार || अत्रत सम्यग्दृष्टीजन के हों कैसे आचार-विचार ! इसी विषय को ले कहता हूँ, परम पवित्र श्रावकाचार ॥
जिनके ज्ञान को पाकर स्वयं ज्ञान भी कृतकृत्य हो जाता है, ऐसे उन मोक्ष - पथ के आधार, सनदेव, सद्गुरु और सत्शास्त्र को मेरे कोटि कोटि प्रणाम हों ।
अत सम्यग्यदृष्टि के कैसे आचार विचारहों, इस दृष्टि को प्रमुख स्थान देकर, मैं श्रावकाचार का कथन प्रारम्भ करूँगा ।
अब इस