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सम्यक् आचार
गरु
साधुओ साधु लोकेन ग्रंथ चेल विमुक्तयं । रत्नत्रयं मयं सुद्ध, लोकालोकेन लोकितं ॥८॥ परिग्रहों की दलदल से जो, दूर दूरतम रहते हैं। एक सूत्र के अम्बर को भी, आडम्बर जो कहते हैं। जिनका ज्ञान समस्त जगत में, छिटकाता रहता आलोक । प्रतिभासित होते रहते हैं, जिसमें नित प्रति लोकालोक ॥
निग्रंथ साधु जो सूत्र के एक धागे को भी आडम्बर मानते व कहते हैं तथा परिग्रह रूपी कीचड़ से अत्यन्त दूर अथवा विरक्त रहते हैं, जिनका मंजा हुआ अनुभवपूर्ण ज्ञान संसार को प्रकाश प्रदान करता है, इतना ही नहीं, उनके अपने अन्तस्तल में भी लोकालोक का ( वस्तुरूप का ) प्रकाश सदैव बना रहता है।
गत
संमिक्त सुद्ध धुवं दिस्टा, सुद्ध तत्व प्रकासकं । ध्यानं च धर्म सुकलं च, न्यानेन न्यान लंकृतं ॥९॥ रत्नत्रय से आलोकित हैं, जिनके अंतरतम के देश । सारभूत शुद्धात्म तत्व का, करते जो नितप्रति निर्देश । धर्म-शुक्ल ध्यानों से जिनने, किया पूर्ण वश मत-गजराज।
जिनको ज्ञायक बना, ज्ञानने पाया नव वसन्त का साज ।। जिनके अन्तरंग के प्रदेश रात्रय से सुसज्जित हैं; जो सारभूत पदार्थ आत्मतत्व का ही उपदेश संसार को देते हैं; धर्म और शुक्ल ध्यान ही जिनके चिन्तवन के विषय है, और अपने ज्ञान से जो ज्ञान की अलौकिक शोभा बढ़ा रहे हैं।