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सम्यक् आचार
ओम् ह्रीं श्रीं
उवं हियं श्रियं चिंते, शुद्ध सद्भाव पूरितम् । संपूर्न सुयं रूपं, रूपातीत बिंद संजुत्तम् ||२||
शुद्ध, श्रेष्ठ सद्भाव - पुंज ही, जिस पद का कंचन - धन है । निराकार निष्कल निमूर्त, शुचि शून्ययुक्त जिसका तन है | स्वयं - शुद्ध श्रुतज्ञान तत्व का, जो असीम भण्डार महान । उस विशुद्ध ओम् ह्रीं श्रीं का करता हूँ मैं प्रतिपल ध्यान ||
जो शुद्ध सत्तात्मक सद्भावों से परिपूर्ण है, जो स्वयं शुद्ध है, सम्पूर्ण श्रुतियों के ज्ञान जिसमें अपना अस्तित्व छिपाये हुये हैं; जो निराकार, निर्मूर्त या शून्यमय है, ऐसे उस विशुद्ध ओम ह्रीं श्रीं का मैं निरंतर चिन्तवन करता हूँ ।
पंच परमेष्टी
नमामि सततं भक्तं, अनादि आदि सुद्धये । प्रतिपूर्वं ति अर्थ सुद्धं, पंचदीप्ति नमामिहं ॥ ३ ॥
आदि अनादि मलों से मैं भी, हो जाऊं तुम-सा स्वाधीन | इसी सिद्धि को छूने को मैं, होता हूँ तुममें तल्लीन ॥ पंच दीप्ति ! सम्यक्त्व-सूर्य तुम, मैं हूँ क्षुद्र अनल का कण । मुझको भी अनुरूप बनालो, हे परिपूर्ण, तुम्हें चन्दन ||
आत्मा के साथ बंधे हुए, आदि और अनादि कर्मों से मैं उनकी ही तरह मुक्त हो जाऊँ; छूट जाऊँ. और सब तरह से शुद्ध हो जाऊँ, इसी सिद्धि को प्राप्त करने के लिये मैं उन पंचविभूतियों को, जो कमों के विजेता रहंत, आवागमन से रहित सिद्ध, शिक्षा और दीक्षा के दाता आचार्य, पठन पाठन के विशेषज्ञ उपाध्याय और आत्मा का परमात्मा से संयोग कराने वाले साधु के नाम संसार में विख्यात हैं, प्रणाम करता हूँ।