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देशोंका पारस्परिक सम्बन्ध
मुझे तो इसमें कठिनाई नहीं जान पड़ती कि व्यापारकी प्रेरणा अविरोधी स्वार्थ हो । अर्थात् देनेवाले और लेनेवाले दोनोंमें ही एक दूसरेके स्वााँका खयाल हो।
पैसेका प्रवाह जितना तेज होगा, उतना ही, धन अर्थात् सम्पत्ति बढ़ाने में सहायक होगा । व्यापारी इस बातको अनुभवसे जानता है और उसे जानना चाहिए । छलसे या चालाकीसे या मजबूरीसे फायदा उठाकर जो अधिक नफा ले लिया जाता है, वह स्थायी नहीं है। अधिकांश वह दूसरेके अज्ञानपर संभव बनता है। उससे परस्परका सम्बन्ध घना और मीठा नहीं बनता । इससे उस प्रकारके देने-लेनेमें बढ़वारी नहीं होती । मैं एक बार जिससे अधिक दाम वसूलकर लूँगा, पता चलनेपर अथवा समर्थ होनेपर वह मेरे साथका संबंध तज देगा। तब मेरा लाभ भी रुक जायगा ।
अर्थात् , उग्र स्वार्थ व्यापारमें भी अदूरदृष्टिका द्योतक है।
संक्षेपमें, आपके प्रश्नका जवाब यह रह जाता है कि, दूरदर्शी व्यापारी मंद स्वार्थ अथवा अविरोधी स्वार्थसे काम लेगा। साथ ही प्रत्येक देशको यह भी समझना चाहिए कि जगतके अन्य देशोंके दैन्यके बीच उसकी अकेलेकी अपनी समृद्धि निरर्थक-सी ही चीज है। वह समृद्धि, इस प्रकार, अनुपयोगी भी हो जाती है । खूब भरा हुआ थाल सामने रखकर कोई उसका आनन्द कैसे ले सकता है, अगर आस-पास गिड़गिड़ाते भूखे आदमी उसे घेरे हों ? वे जबतक
आँखोंके आगेसे टल न जायँ, या उनका गिड़गिड़ाना बन्द न हो जाय, तब तक मेरी समझमें नहीं आता कि किस प्रकार भोग्य वस्तुमें भी भोग बुद्धि तृप्त की जा सकती है ? वह धन बेकाम है, वह धन ही नहीं है जो निर्धनता फैलाता है।