________________
स्त्री और पुरुष
१०९
प्रश्न-स्त्री-जगतमें एक लहर पुरुप ही जैसे खतरनाक और साहसिक कार्य कर दिखलानेकी उठी है, कहीं तो वह आकांक्षा और फैशन भी बनती जा रही है। क्या ऐसी चेष्टाएँ कोई वास्तविक सार्थकता रखती हैं ?
उत्तर-क्या मुझसे फैसला माँगा जाता है ? जो कर्म किसी भीतरी प्रेरणासे नहीं, बाह्य आकांक्षासे प्रेरित है, वह कदाचित् ही हितकर होता है ।
प्रश्न-सार्वजनिक कार्याके प्रति स्त्रियोंका कर्त्तव्य क्या वैसा ही है जैसा पुरुपोंका ? अथवा कुछ भेद-युक्त ? ।
उत्तर-सार्वजनिक हितमें उसका समान भाग है। लेकिन, जिनको सार्वजनिक कार्य कहा जाता है, ऐसे कार्यमें स्त्री और पुरुपके भागमें मैं भेद मानता हूँ। प्रश्न-वह भेद क्या है ?
उत्तर-स्त्रीमें कोमल गुणोंकी विशेषता है । वह उन द्वारा अपना दान समाजको देगी। यानी दौड़-धूप, व्यवस्था-संगठन और चुनावी लड़ाइयों का क्षेत्र उसके अनुकुल क्षेत्र नहीं है।
प्रश्न-किन्तु, उन क्षेत्रोंके कार्य-संपादनके साधनका क्या कोमलताके विरुद्ध होना अनिवार्य ही है ? क्या वे कर्म स्त्रियोंकी कोमलतासे और भी सहज-संपाद्य नहीं हो सकते?
उत्तर-सब कामों में स्त्रीका हिस्सा लेना अनिवार्य नहीं है। अगर वकालत मीठी बोलीसे ज्यादा भी चल सकती हो, तो इस कारण स्त्रीको वकालत करना जरूरी है, - ऐसा मैं नहीं मानता। कुछ काम ऐसे हैं, और सामाजिक सार्वजनिक काम अधिकांश इसी प्रकृतिके होते हैं. जिनमें उत्सर्गसे अधिक आग्रह और विग्रहकी वृत्ति जरूरी होती है । इसमें कोई अर्थ नहीं कि स्त्रीसे चाहा जाय, अथवा कि स्त्री स्वयं चाहे, कि वह उन कामों में हाथ बँटाए ही बँटाए ।
प्रश्न-लेकिन वकालत सामाजिक अथवा सार्वजनिक कार्य तो नहीं है। वहाँ भले ही स्त्रीकी कोमलताका सदुपयोग न हो सके, पर समाज-सेवामें वह क्यों गैर मुनासिब है ?
उत्तर-ठीक । वह सार्वजनिक अथवा सामाजिक नहीं, व्यावसायिक कार्य है।