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प्रस्तुत प्रश्न
व्यय की जा रही है, वह सब बच जायगी। अगर लड़ाकू जहाज कुछ कम हुए, टेंक कम हो गये, तोप-गोले ढालनेवाले कारखाने घट गये, बड़ी बड़ी कपड़ोंकी मिले कम हो गई, तो इसका यह आशय कभी नहीं बनता कि सफ़री जहाज, रेल, मोटर आदि भी कम हो जायेंगे । बल्कि वैसी अवस्थामें टेलीफोन क्यों न
और भी सुलभ हो आवेंगे, और उसी भाँति रेडियो ? मानव-सभ्यता और विज्ञानने जो सौन्दर्य और सुविधा प्रस्तुत की है, मानवताके ऐक्यके हितों उसका तो प्रयोग किया ही जायगा। लेकिन जो विषफल भी उत्पन्न हो गया है, उसको खाकर मरनेका आग्रह नहीं करना चाहिए । आज कठिनाई यही है कि यातायातके (=Communication के ) साधन मुख्यतासे सरकारोंके सरकारी हित-साधनके विशेष काममें आते हैं । जनताका हित मानो उनसे रूँगेमें ही निभता है। विपत्ति यही है और इसीको दूर करनेके लिए यह कहा जाता है कि
आर्थिक विकीरण (=Decentralization) होना चाहिये जिससे कि व्यावसायिक होड़ा-होड़ी बंद हो और हम परस्पर मिलकर सांस्कृतिक विज्ञानकी बढ़वारी करें।
प्रश्न-उद्योग-व्यवस्थामें ये जो कुछ परिवर्तन आप आवश्यक समझते हैं क्या आप उन्हें संभव भी मानते हैं ? यदि हाँ, तो किस तरह ?
उत्तर-संभव नहीं मानें तो मतलब होगा कि केवल आधे दिलसे उन्हें आवश्यक समझता हूँ।
किस तरह ? तो उत्तर होगा कि स्वयं प्रारंभ करके । बड़े व्यावसायिक उद्योग टूटें, इसकी सीधी राह यह है कि मैं नैतिक भावनासे कोई भी छोटा-मोटा उद्योग शुरू कर दूँ । मेरी भावना जो कि नैतिक है उस उद्योगको तमाम स्पर्धा ( =Competition ) और अश्रद्धाकी झुलसके बीच सूखने न देगी और दूसरे व्यक्तियोंको भी उधर खींचेगी । फिर संगठन, व्यवस्था, कौशल आदि अन्य सामाजिक गुण हैं जिनको अपनेमें जगाकर समर्थ बनना होगा।
यह आगाही रखनी होगी कि अनीति-बलसे ( =Compulsion से ) काम तनिक न लिया जाय ।
प्रश्न-औद्योगिक विकासका अंतिम तथा आदर्शरूप आप कौनसा मानते हैं ? उस स्थितिमें मानव-समाजकी व्यवस्थामें और आजकी व्यवस्थामें मूलभूत भेद क्या होगा?