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मार्क्स ओर अन्य
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लोगोंकी बेचैनी, इन दोनों के संयोगने समाजवादी स्वनको जन्म दिया । अचरज नहीं कि उस समय बौद्धिक लोगों का ध्यान इतनी विवशतासे उस ओर खिंचा । मासिज्म निःसन्देह उस समय प्रचलित कई विचारधाराओं को अपने में समा लेता है । वह उनका समन्वय होने के कारण प्रबल हो सका। लेकिन अंतमें जाकर उसका आधार वर्ग विभेद है, अभेद नहीं । इसलिए यथाशीघ्र उसकी अपर्याप्तता उभर कर प्रमाणित हो आती है ।
प्रश्न – हिटलर तथा मुसोलिनीकी आज जो सफलता दिखाई दे रही है, उसका आधार भी क्या श्रद्धा ही है ?
उत्तर—हा, मानना होगा कि वही हैं । वे अपने विचारके साथ जितने एक हैं अर्थात् जितना उसे अपने आचरण में उतारते हैं, उतने ही उनके विचार प्रबल दीखते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि उन विचारों में अपने आपमें कोई स्थिर सचाई है । उनमें उतनी ही सचाई है जितनी जीवनके जोरसे डाली जा सकी है ।
जीवन चूँकि मूलतः एक है, यानी आत्मैक्य है, इसलिए जो विचार और जो व्यक्तित्व इतिहासके अंतरालको पार कर सबसे बलशाली और अविरोध्य सिद्ध होगा वह धार्मिक होगा । धार्मिक, अर्थात् ऐक्य भावना से परिपूर्ण । हिटलर और मुसोलिनी, यह तो मानना ही होगा कि, अपने पूरे व्यक्तित्वसे किसी एक मन्तव्य के प्रतिनिधि बन गये हैं । उनमें मानो एक समूचा राष्ट्र ही ( तात्कालिक ) ऐक्य पा जाता है । यही बात लेनिन में थी । छोड़िए इज़्मों को, लेकिन लेनिन और मुसोलिनी में बहुत फासला नहीं है ।
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प्रश्न- फिर मासिज्म और फालिज़्म में भी तो बहुत कम फासला रह जाता है ?
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उत्तर - मेरे खयाल में यह फासला सचमुच बहुत अधिक नहीं है । उनकी प्रकृतियों में अंतर नहीं है । घोषों में और तर्कों में अवश्य अनबन है । मुझे तो जान पड़ता है कि अन्तःप्रकृति से दोनों ही एक हैं । मासिज्म बुद्धि-प्रधान है, फासिज्म कर्म - प्रधान है । लेकिन दोनों ही शक्तिके पूजक हैं ।
जैसे पूँजीवाद मासिज्मको जन्म देता है, वैसे ही मुझे प्रतीत होता है कि मासिज्म की पूँछ के पीछे मुँह खोले फासिज़्म जरूर आयेगा । वह तो एक चक्कर है । उसपर पड़े कि जाने-अनजाने चकराना ही होता है ।