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प्रस्तुत प्रश्न
विश्वास गाड़कर नहीं बैठना चाहिए । किसी पार्टीके हाथ आत्माको नहीं बेचा जा सकता। हाँ, सहयात्री तो बना ही जा सकता है । जहाँ तक पार्टी स्वाधीनचेता व्यक्तियोंका सम्मिलित संघ है और प्रत्येक सदस्य अपने विवेकका मालिक है, वहाँ तक तो ठीक है । लेकिन जहाँ अन्यथा है, वहाँ पार्टीमें बुराइयाँ भी आ चलती हैं । अहिंसाके नामवाली पार्टीम वे बुराइयाँ नहीं आयगी, एसा कहनेका मेग आशय नहीं है।
प्रश्न --अहिंसाके लिए संगठित प्रयत्नका प्रत्यक्ष जो उदाहरण हमारे समक्ष है, उसे देखते हुए क्या आप कहेंगे कि अहिंलाकी पार्टीका कार्यक्रम बुद्धिजीवी वर्गकी हिंसाको छिपान और अप्रयुद्धोंको भ्रममें डालनेवाला ही नहीं हो जायगा?
उत्तर-आगे क्या होगा, वह कहना कठिन है । पर हिन्दुस्तान के सार्वजनिक जीवनमें अहिंसाके प्रयोगके जो मंगटित प्रयत्न चल रहे हैं, उनमें अभी तो अश्रद्धाका मेरे लिए विशेष कारण नहीं है । वजह शायद यह हो सकती है कि महात्मा गाँधीकी उपस्थिति, जो स्वयमें प्रज्वलित अहिंसाके स्वरूप हैं, उन प्रयत्नोको सच्ची अहिंसाले च्युत नहीं होने देती।
प्रश्न--क्या यह सही है ? महात्मा गाँधीजीके होते हुए भी हम देखते हैं कि उनके विश्वास-पात्र सहकारी, जो सरकारके मंत्री बने हैं, अपने मानवोचित अधिकारोंकी रक्षाके लिए शान्ति और अहिंसापूर्ण युद्ध करनेवाले गरविापर गोलियाँ चलवाते हैं और उसका समर्थन करते हैं। क्या यह अहिंसा है ?
उत्तर --उनकी जगह कोई और क्या ऐसा कहने को तैयार है कि बिना गोली चलाये उससे अधिक जानोंको जानेसे वह बचा सकता था ? मुझे नहीं मालूम कि ऐसा किसीने दावा किया है । तब क्या अहिंसाके नामपर एक काग्रेसी मंत्री अपनी जिम्मेदारीको जानते हुए भी खुली हिंसा होने दे ? इससे अगर मंत्रियोंने लाचार होकर हिंसाको रोकनके निमित्त गोली चलने दी, तो इससे यह तो साबित हो सकता है कि कांग्रेसकी नैतिक शक्ति अभी काफी नहीं है, और उसका विकास करना चाहिए, परन्तु इससे अधिक उमका यह मतलब नहीं लगाया जा सकता कि अहिंसाके नामपर हिंसा करके कांग्रेस-मन्त्रियोंने कपट व्यवहार किया । सच बात तो यह है कि शासनका भाग होना अपने-आपमें थोड़ी-बहुत हिंसाको