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प्रस्तुत प्रश्न
प्रश्न-'मुझसे' क्या है ? इसके मानी हुए कि सव ज्ञान व्यक्तिगत है ? फिर ऊपर आपने कहा कि व्यक्तिको व्यक्तित्व छोड़ना चाहिए, अब उसीकी शरण आप ले रहे हैं।
उत्तर - वह तो मैं अब भी कहता हूँ । व्यक्तिको अपने व्यक्तित्वसे ऊँचा रहना चाहिए । इस स्थितिमें वह जाननेसे ऊँचा होगा । ज्ञान एक बंधन है । जो मैंने कहा उसका तो मतलब यही होता है कि मैं मुक्त नहीं हूँ । ज्ञानके बंधनसे छूटा हुआ नहीं हूँ। सारा ज्ञान व्यक्तिगत है । पर अंतमें जाकर व्यक्ति असिद्ध है । इस तरह सारा ज्ञान भी झूठा हो जाता है । ज्ञान और ज्ञात सब माया है, यह वेदान्तकी स्थिति इसी दृष्टिकोणसे यथार्थ टहरती है । विज्ञान भी तो बताता है कि सब आपेक्षिक है, Relative है ।
प्रश्न-ठीक इसी तरह कहा जा सकता है कि समस्त श्रद्धा बंधन है । समस्त श्रद्धा व्यक्तिगत है, अतएव असत्य है । ज्ञान असत्य है, श्रद्धा असत्य है । फिर सत्य बनता है सिर्फ अज्ञात जो फिर ज्ञानकी ही संज्ञा है, श्रद्धाकी संज्ञा नहीं है । इस गोरखधन्धेका कोई अंत नहीं पायगा । यानी आप जो कहते हैं वह आपके लिए ठीक है, जो मैं कहता हूँ मेरे लिए ठीक है । फिर समझौता क्या है ही नहीं ?
उ०-श्रद्धा हमको बाँधती नहीं. खोलती है । क्यों कि श्रद्धाका आधार रेखाबद्ध नहीं होता । जो स्वयं घिरा नहीं है, वह दूसरेको कैसे घेरेगा ? इसीलिए भक्तकी भक्तिका आधार चूँ कि अपरिमेय होता है, निर्गुण होता है । सगुण मूर्ति तो केवल उपलक्ष्य है, रूपक है ) इस कारण यह एकदम असभ । हो जाता है कि वह भक्ति अथवा श्रद्धा अपने पात्रको परिमित करें । जहा श्रद्धाभक्तिमेंसे यह निगुणताका गुण निकल गया, वहाँ कट्टरता आ जाती है । यानी, श्रद्धा स्वयं एक मतवाद हो जाती है।
जिसको साधारण अर्थोंमें 'ज्ञान' कहते हैं वह वैज्ञानिक दृष्टिसे तो रेखा बद्ध होता ही है । अर्थात् वह मतरूप और 'वाद' रूप होता है । अगर वह मूलमें श्रद्धा-प्रेरित नहीं है, तो साफ है कि स्वयं रेखा-बद्ध होनेके कारण वह अपने शिकारको ( अर्थात् ज्ञानीको) रेखाओंके बंधनमें बाँध लेगा।