________________
धर्म और अधर्म
२४३
उसी लौमें ध्यान लगाये रहनाः उसी अंतर्ध्वनिके आदेशको सुनना और तदनुकूल वर्तना; उसके अतिरिक्त कुछ भी औरकी चिन्ता न करना; सर्वथैव उसीके हो रहना और अपने समूचे अस्तित्वको उसमें होम देना, उसीमें जलना
और उसीमें जीना : यही धर्मका सार है। ___ सूने महलमें दिया जगा ले । उसकी लौमें लौ लगा बैठ । आसनसे मत डाल । बाहरकी मत सुन । सब बाहरको अन्तर्गत हो जाने दे । तब त्रिभुवनमें तू ही होगा और त्रिभुवन तुझमें, और तू उस लामें | धर्मकी यही इष्टावस्था है । यहाँ द्वित्व नष्ट हो जाता है । आत्माकी ही एक सत्ता रहती है । विकार असत् हो रहते हैं जैसे प्रकाशके आगे अन्धकार ।
प्रश्न-अधर्म क्या ? . उत्तर-जो धर्मका घात कर वह अधर्म । अधर्म अभावरूप है । वह सतरूप नहीं है इससे अधर्म असत्य है।
इसीसे व्यक्तिके ही साथ अधर्म है। समष्टिमें तो अधर्म जैसा कुछ है ही नहीं । अतः कृत्यमें धर्माधर्मका भेद व्यक्तिकी भावनाओंके कारण होता है।
अधर्म स्व-भाव अथवा सद्भाव नहीं है, वह विकारी भाव है, अतएव पर-भाव है। जीवके साथ पुद्गलकी जड़ताको कम करनेवाला, अर्थात् मुक्तिको समीप लानेवाला, जब कि धर्म हुआ, तब उस बन्धनको बढ़ानेवाला और मुक्तिको हटानेवाला अधर्म कहलाया ।
धर्म इस तरह स्व-परमें और सत्-असतमें विवेक-स्वरूप है । अधर्मका स्वरूप संशय है । उसमें जड़ और चैतन्यके मध्य विवेककी हानि है। उसक वश होकर जड़में और जड़तामें भी व्यक्ति ममत्व और आग्रह रखता दीखता है । जड़को अपना मानता है, उसमें अपनापन आरोपता है और इस पद्धतिसे आत्मज्योतिको मंद करता है और स्वयं जड़वत परिणमनका भागी होता है।
नित्य-प्रतिके व्यवहारमें जीवकी गति द्वंद्वमयी देखने में आती है। राग-द्वेष, हर्ष-शोक, रति-अरति । जैसे घड़ीका लटकन इधरसे उधर हिलता रहता है, उसे थिरता नहीं है, वैसे ही संसारी जीवका चित्त उन द्वंद्वोंके सिरोंपर जा-जाकर टकराया करता है। कभी बेहद विरक्ति ( अरति ) आकर घेर लेती है और जुगुप्सा हो आती है और घड़ीमें कामना और लिप्सा (रति) जाग जाती है।