Book Title: Prastut Prashna
Author(s): Jainendrakumar
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 260
________________ ૨૦૦ प्रस्तुत प्रश्न इस क्षण इससे राग, तो दूसरे पल दूसरेसे उत्कट द्वेषका अनुभव होता है । ऐसे ही, हाल खुशी और हाल दुखी वह जीव मालूम होता है । अधर्म इस द्वंद्वको पैदा करनेवाला और बढ़ानेवाला है । द्वंद्व ही नाम शका है। धर्मका लक्ष्य कैवल्य स्थिति है । वह नित्य और साम्यकी स्थिति है । वहाँ सत् और चित् ही हैं । अतः आनंद के सिवा वहा और कुछ हो नहीं सकता । विकल्प, संशय, द्वंद्वका वहाँ सर्वथा नाश है । अधर्मका वाहन है विकल्प - ग्रस्त बुद्धि | ममता, मोह, मायामें पड़ी मानव-मति । उसका छुटकारेका उपाय है श्रद्धा । बुद्धि जब विकल्प रचती है तो श्रद्धा उसीके मध्य संकल्प जगा देती है । श्रद्धा संयुक्त बुद्धिका नाम है विवेक । जहाँ श्रद्धा नहीं है वहाँ अधर्म है । उस जगह बुद्धि जीवको बहुत भरमाती है । तरह-तरहकी इच्छाओंसे मनुष्यको सताती है । उसके ताबे होकर मनुष्य अपने भव-चक्र को बढ़ाता ही है । ऐसी बुद्धिका लक्षण है लोकैषणा । उसीको अधर्मका लक्षण भी जानना चाहिए । पुण्यकर्म समझे जानेवाले बहुत से कृत्यों के पीछे भी यह लोकैषणा अर्थात् सांसारिक महत्त्वाकांक्षा छिपी रह सकती है । पर वह जहाँ हो वहाँ अधर्मका निवास है । और जहाँ अधर्म है वहाँ धर्मका घात है । इस बातको बहुत अच्छी तरह मनमें उतार लेने की आवश्यकता है । नहीं तो धर्माधर्मका तात्त्विक भेद इतना सूक्ष्म हो जाता है कि जिज्ञासुके उसमें खो रहने की आशंका है । मुख्य बात आत्म- जागृति है । अपने बारे में सोना किसीको नहीं चाहिए । आँख झपकी कि चोर भीतर बैठ जायगा । वह चोर भीतर घुसा हो तब बाहरी किसी अनुष्ठानकी मदद से धर्मकी साधना भला कैसे हो सकती है ? इंद्रियों की चौकीदारी इसलिए खूब सावधानी से करनी चाहिए । जो अपनेको धोखा देगा उसे फिर कोई गुरु, कोई आचार्य, कोई शास्त्र और कोई मंदिर कहीं नहीं पहुँचा सकेगा । अपनेको भूलना और भुलाना अधर्म है । जागते रहने और जानते रहनेद्वारा अधर्मका पराभव होता है । समाम

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