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२- धर्म और अधर्म
प्रश्न - धर्म क्या है ?
उत्तर
-बड़ा अच्छा प्रश्न किया गया है कि धर्म क्या है ? जैन आगम में कथन है कि वस्तुका स्वभाव ही धर्म है ।
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इस तरह स्वभाव-च्युत होना अधर्म और स्वनिष्ठ रहना धर्म हुआ । मानवका धर्म मानवता, दूसरे शब्दों में उसका अर्थ हुआ आत्मनिष्ठा । मनुष्यमें सदा ही थोड़ा-बहुत द्वित्व रहता है । इच्छा और कर्ममें फासला दीखता है । मन कुछ चाहता है, तन उस मनको बाँधे रखता है । तन पूरी तरह मनके बसमें नहीं रहता, और न मन ही एकदम तनके ताबे हो सकता है । इसी द्वित्वका नाम क्लेश है । यहींसे दुःख और पाप उपजता है ।
इस द्वित्वकी अपेक्षा में हम मानवको देखें तो कहा जा सकता है कि मन ( अथवा आत्मा ) उसका 'स्व' है, तन 'पर' है । तन विकारकी ओर जाता है, मन स्वच्छ स्वप्नकी ओर । तनकी प्रकृतिको विकार स्वीकार करनेपर मनमें भी मलिनता आ जाती है और उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है । इससे तनकी गुलामी पराधीनता है और तनको मनके वश रखना और मनको आत्माके वशमें रखना स्वनिष्ठा, स्वास्थ्य और स्वाधीनताकी परिभाषा है ।
संक्षेपमें सब समय और सब स्थितिमे आत्मानुकूल वर्तन करना धर्माचरणी होना है । उससे अन्यथा वर्तन करना धर्म- विमुख होना है । असंयम अधर्म है; क्योंकि इसका अर्थ मानवका अपनी आत्माके निषेधपर देहके काबू हो जाना है । इसके प्रतिकूल संयम धर्माभ्यास है ।
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इस दृष्टि से देखा जाय तो धर्मको कहीं भी खोजने जाना नहीं है । वह आत्मगत है। बाहर ग्रन्थों और ग्रन्थियों में वह नहीं पाया जायगा, वह तो भीतर ही है । भीतर एक लौ है । वह सदा जगी रहती है । बुझी, कि वही प्राणी की मृत्यु है । मनुष्य प्रमादसे उसे चाहे न सुने, पर वह अंतर्ध्वनि कभी नहीं सोती । चाहे तो उसे अनसुना कर दो, पर वह तो तुम्हें सुनाती ही है । प्रतिक्षण वह तुम्हें सुझाती रहती है कि यह तुम्हारा स्वभाव नहीं है । यह नहीं है ।