Book Title: Prastut Prashna
Author(s): Jainendrakumar
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 253
________________ व्यक्ति, मार्ग और मोक्ष २३७ मूल्यसे') आपका क्या मतलब है । Contradiction से ( =विरोधसे ) खाली किसका जीवन है ? प्र०--माना । पर Contrali tion (=विरोध) ही तो जीवनका सब कुछ नहीं है? मौत ही तो जीना नहीं है। असत्य Positive) ( -भावान्मकरूपमें) क्या है ? क्या उसे सिर्फ Innovable ( =अज्ञेय) कहकर टाल दना है? उत्तर --' अशेय' ( =Inkhable) कहनेसे तो शायद वह टलता हो, लेकिन श्रद्धाद्वारा उसीको सत्य बनाया जा सकता है । प्र०--सत्य अर्थात् ज्ञात ? उत्तर - नहीं। प्रश्न-फिर क्या? • उत्तर-ज्ञात सत्यका एक पहल भर है । ज्ञात+अज्ञात-अज्ञय : सत्य यह सब कुछ है । प्रश्न-जा अज्ञात और अज्ञेय हैं, उसपर श्रद्धा कैसे संभव है ? उत्तर-जिसे अज्ञात और अज्ञेय कहते हैं, वह हमारे प्राणोंके भीतर तो अब भी एकदम अननुभत नहीं है । हम प्रत्येक भावनाकी गहराई में उतरें तो मालूम होगा कि वह हमारे व्यक्तित्वसे परिबद्ध नहीं है । इस भाँति हमारी प्रत्येक भावना और हम स्वयं अपने ही निकट अज्ञेय बन जाते हैं । इसलिए अज्ञेयके प्रति श्रद्धा रखना कोई बुद्धिहीनताका लक्षण नहीं है । वह तो एक प्रकारसे आत्म-विश्वासका ही एक रूप है। जिसको ज्ञान कहते हैं वह श्रद्धाके एक किनारेको ही छूता है । श्रद्धा ज्ञानकी विरोधिनी नहीं है । और ज्ञानके स्वरूपको भी देखिये। हमारे अधिक जाननेका मतलब यही तो होता है कि अज्ञेयका परिमाण हमारे निकट बढ़ जाता है । जो ऐसा नहीं करता, वह ज्ञान ज्ञान ही नहीं है । वह आत्मवंचना है, अहकार है। प्रश्न-ठीक इसी तरह कहा जा सकता है कि श्रद्धा ज्ञानके एक किनारको छूती है । आत्म-विश्वास क्या चीज़ है ? आत्मा और विश्वास दोनों ज्ञान-गम्य हैं। इनकी मार्फत श्रद्धा नहीं समझी जा सकती। उत्तर-कहा जा सकता है तो कहिए । मुझसे नहीं कहा जाता।

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