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१ - व्यक्ति, मार्ग और मोक्ष
प्रश्न – संस्कारके बंधन से आत्माको मुक्त होना चाहिए या नहीं ? यदि चाहिए तो कैसे ?
उत्तर – जो हमें आत्मानुकूल बनाते हैं, उनको संस्कार कहा जाता है । इस तरह पूर्ण संस्कारी पुरुष मुक्त पुरुष भी है । उस अवस्था में संस्कार बंधनरूप होते ही नहीं, वे अभिव्यक्तिरूप होते हैं । विकारोंको तब दबाना नहीं पड़ता, क्यों कि वे स्वयमेव ही नहीं उठते ।
इस सिलसिले में मुझें कवि रवीन्द्रका कथन याद आता है कि जो संयमकी राहंसे पाना कठिन होता है, सौन्दर्यकी राह से वह सुगम हो जाता है । अश्रेय कहकर जिसे छोड़ना मुश्किल होता है, उसे असुंदर देखकर हम स्वयमेव ही छोड़ देते हैं । इसी भाँति संस्कारशील पुरुषके लिए संस्कार बाधा अथवा बंधन नहीं होते, वे मानो उसकी व्यापकता में सहायक होते हैं ।
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प्रश्न – संयम क्या है ? क्या पूर्ण संयम संभव है ? अगर संयम सापेक्ष है तो उसकी अच्छाई कौन ठहरायेगा, कैसे ठहरायेगा ?
उत्तर - किसी प्रिय लगनेवाली किंतु साथ ही अश्रेय लगनेवाली चीज़को तजने का अभ्यास संयम है ।
पूर्ण स्थिति में संयम संभव नहीं, क्यों कि वहाँ उतनी न्यूनता ही नहीं ।
संयमका प्रमाण परिमाण एक ओर अपनी अन्तस्थ ज्योति और दूसरी ओर समाजोपयोगितासे परिभाषा पाये हुए हैं। संयमका मतलब ही यह है कि व्यक्ति असामाजिक वर्तन न करे । साथ ही यदि वह संयम संस्कारशीलताको बढ़ाता है। तो उसमें यह भी अर्थ हो जाता है कि व्यक्तिकी निजता उससे परिपुष्ट हो । संयमकी निषेधात्मक मर्यादा है समाजकी नीति । उसकी प्रेरणा है अपने भीतरकी एकत्व -लाभकी भावना |
प्र०
- आप क्यों जीते हैं ?
उत्तर- - जब तक मौत न आये, क्या उससे पहले ही मरना होगा ? - तो क्या अंतिम ध्येय मौत हुई ?
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