Book Title: Prastut Prashna
Author(s): Jainendrakumar
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 243
________________ विकासकी वास्तविकता २२७ उत्तर-अहिंसाके तत्त्वका मैं समर्थन कर रहा हूँ । अहिंसाका चेहरा लगाकर हिंसाका तत्त्व अगर फैलता हो, जो कि संभव है, तो उसका तो विरोध ही करने के लिए मैं कह सकता हूँ। इसीलिए अहिंसाके 'वाद'के समर्थकोंमें मैं नहीं हूँ । अहिंसा धर्म है, और अहिंसाका 'वाद' व्यवसाय बन जा सकता है। ___ अच्छे सिद्धान्तकी ओट लेकर बुरा आदमी बुराई करनेका सुभीता पाने लगे तो इसमें उस सिद्धांतका दोष नहीं है । इसीलिए हम भलाईकी (धर्मकी ) कोई पार्टी बनानेकी भी कोशिश न करें । भलाई ( धार्मिकता ) अगर सच्ची है तो उसका प्रभाव होगा ही। उसमें फैलने और बढ़ने के भी बीज हैं। लेकिन वेग घेरकर पार्टी-लेबलके जोरसे जो अपनेको प्रचारित करती है, उसमें कुछ मंदिग्ध चीज़ भी शामिल है और उस संदिग्ध वस्तुका समर्थन मुझसे नहीं होगा। प्रश्न--आज तो संघ-शक्तिका युग है। और कोई भी सिद्धान्त हो, उसके आधारपर संगठन और 'वाद' जरूर बनेगा । अहिंसाका सिद्धान्त जैसे ही महात्मा गाँधीने प्रस्तुत किया कि तुरंत ही उसके प्रचारके लिए अहिंसावादी संगठन बने और अहिंसावादियोंका प्रचार कार्य शुरू हो गया । फिर पार्टी न बने, इसका क्या मतलब है? उत्तर-संगठन बुरी बात नहीं है। संगठन सामाजिक कर्मके लिए बनता है । उसका आशय यह नहीं है कि संगठित पार्टीके ताबे कोई धर्म हा जावे । धर्मका व्यावहारिक प्रयोग करनेमें संघ और सम्प्रदाय बन जायँगे । उन संघ और सम्प्रदायोंमें फिर खराबी भी आ चलेगी। संघके लिए संघ-सत्ता और सम्प्रदायके लिए अपना सांप्रदायिक प्राबल्य ही चिंता और चेष्टाका विषय हो चलता है। यही खराबी है । धर्म-गत सम्प्रदाय कोई खराबी नहीं पैदा करता, बल्कि कल्याण ही करता है। लेकिन धर्म ही जब सम्प्रदायगत माना जान लगता है तब खराबीकी भी जड़ पड़ जाती है। कोई भी सचाई धीम धीमे एक संप्रदायका व्यवसाय बन जाती है, ऐसा देखनेमें आता है। ऐसा होता है, हो रहा है और होगा। लेकिन इसके लिए किया क्या जाय ? यही कहा जा सकता है कि कोई धर्म जब इस भाँति जड़ होने लगे, तब उसमें प्राण-प्रतिष्ठापनके लिए उसीसे युद्ध करना होगा । इसीलिए तो बार बार कहा जाता है कि सचाई रूपमें नहीं है, वह भीतरी है । किसी बाहरी रूपपर इसीलिए

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